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सूक्तरत्नावली / 21
दोषं विशेषतः स्थाना,-ऽभावाद्याति गुणः सखे !। न निन्द्या स्तनयोर्जज्ञे, नम्रताऽमिमताऽपि किम्? ||24 ।।
हे सखि ! प्रतिकूल स्थिति मे गुण भी दोष रूप हो जाते हैं। 'जैसे नम्रता निंदनीय नहीं होते हुए भी स्त्री के स्तनों के संदर्भ मे निन्दनीय मानी जाती है।
गते तेजसि सौभाग्य,-हानियोतिष्मतामपि। यन्निर्वाणः शमीगर्मो, रक्षेयमिति कीर्त्यते।। 25।।
तेजस्वी व्यक्ति का तेज चले जाने पर सौभाग्य की भी हानि हो जाती है। जैसे शमीवृक्ष के भीतर अग्नि बुझ जाने पर भी "उसकी रक्षा करना चाहिये". ऐसा कहा जाता है।
प्रायः पापेषु पापानां, प्रीतिपीनं भवेन्मनः। पिचुमन्दतरुष्वेव, वायसानां रतिर्यतः ।। 26 ।।
प्रायः पापी व्यक्तियों का मन पापों मे ही प्रसन्न रहना है। जैसे कौओं की अभिरुचि (निकृष्ट) पिचुमन्द वृक्ष पर ही होती हैं। प्रायशस्तनुजन्मानो,-ऽनुयान्ति पितरं प्रति। धूमाज्जाते हि जीमूते, कलितः कालिमा न किम्? ||27 || ___ पुत्र जन्म से ही प्रायः पिता का अनुसरण करता है। क्या धुंए से उत्पन्न बादल कालिमा से युक्त नहीं होते ? नेशाः कर्तुं वयं वाचां, गोचरं गुणगौरवम् । यत् सच्छिद्रोऽपि मुक्तौघः, कण्ठे लुठति यद्वशात्।।28।।
गुणों के गौरव का वर्णन करने में हमारी वाणी समर्थ नहीं है। मोतियो का समूह (माला) छिद्रयुक्त होने पर ही गले में धारण किये जाने पर नेत्रों को आनन्द प्रदान करते हैं।
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