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22 / सूक्तरत्नावली
आत्मकृत्यकृते लोकै, -र्नीचोऽपि बहु मन्यते। धान्यानां रक्षणाद् रक्षा, यद्यत्नेन विधीयते।।29 ||
संसार में स्वार्थ होने पर नीच व्यक्ति भी बहुत सम्मान पाते हैं। जैसे धान की रक्षा के लिए राख को भी यत्न से विधिपूर्वक रखते है। सतां यत्रापदः, प्रायः, पापानां तत्र संपदः । मुद्रिताक्षेषु लोकेषु, यद् घूकानां दृशः स्मिताः ।।30।। । प्रायः जहाँ सज्जन व्यक्तियों को आपत्ति होती है वहाँ पापियों को सम्पत्ति होती है। जैसे संसार की आँखे बंद हो जाने पर (रात्रि मे सभी सो जाने पर) ही उल्लुओं की दृष्टि प्रसन्न होती है। मानितोऽप्यपकाराय, स्याद वश्यं दुराशयः । किं मूर्ध्नि स्नहनाशाय, नारोपित(:) खलः खलु ? ||31।।
सम्मानित व्यक्ति की दुर्भावना भी अवश्य उसके अहित के लिए होती है। क्या दुर्जन व्यक्तियों की सिर पर आरोपित की हुई दुष्टता स्नेह के नाश के लिए नहीं होती है ? • नोपैति विकृतिं कामं, पराभूतोऽपि सज्जनः । यन्मर्दितोऽपि कर्पूरो, न दौर्गन्ध्यमुपेयिवान्।। 32||
सज्जन व्यक्ति के असफल होने पर भी विकृति प्राप्त नहीं होती है। जैसे कपूर के मसले जाने पर भी वह सुगन्ध नहीं छोड़ता है। विपत्तावपि माहात्म्य, महतां भृशमेधते । सौरमं काकतुण्डस्य, किमु दाहेऽपि नाऽभवत् ? ||33।।
विपत्ति में महान् व्यक्तियों की महानता अधिक बढ़ जाती है क्या काकतुण्ड को जलाने पर उसकी सौरभ नहीं बढ़ती है ? अर्थात् बढ़ जाती है।
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