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सूक्तरत्नावली / 25
अश्व(स्व)कोऽपि गुणैर्गाढं, स्यात्समाजनमाजनम्। आरोप्यते नृपैटिन, वनोत्पन्नोऽपि चन्दनः ।। 44 ||
कोई भी गुणों से युक्त व्यक्ति समाजनों का सेव्य होता है। जैसे वन में उत्पन्न होने पर भी चन्दन राजा द्वारा सिर पर लगाया जाता
पापधीद्रुतमभ्ये ति, बहू पायैश्च धर्मधीः । वस्त्रे स्यात् कालिमा सद्यः, शोणिमा भूरिमिर्दिनैः ।।45।।
पाप बुद्धि शीघ्र निकट आ जाती है। धर्म बुद्धि बहुत उपाय से आती है। जैसे वस्त्र पर कालिमा शीघ्र आती है लालिमा बहुत दिनों में आती है।
संपत् पापात्मनां प्रायः पापैरेवोपभुज्यते । भोज्यं बलिमुजामेव, फलं निम्बतरोरभूत्।। 46 ।।
पापी लोगों की सम्पत्ति प्रायः पाप कार्य में ही उपभुक्त होती है। जैसे नीम वृक्ष के फल का भोजन कौएँ ही करते हैं।
भोग्यं भाग्यवतामेव, संचितं तद्धनैर्धनम्।
परैरादीयते नूनं, मक्षिकामेलितं मधु।। 47 ।। किसी के द्वारा संचित किये गये धन का भाग्यवान व्यक्ति ही भोग करता है। जैसे मधुमक्खी से प्राप्त मधु निश्चय ही अन्यों द्वारा सेवित होता है।
का क्षतिर्यदि नाऽसेवि, तुंगात्मा मलिनात्मभिः ?| का हानिर्हेमपुष्पस्य, मुक्तस्य मधुपैरभूत् ?।। 48।।
उच्च आत्माओं की सेवा मलिन आत्माओं द्वारा न हो तो उनको क्या क्षति (नुकसान) ? स्वर्ण पुष्प के मोती भँवरो द्वारा सेवित न हो तो क्या हानि ?
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