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28 / सूक्तरत्नावली
परतः संपदं प्राप्य, सोत्कर्षा नीचगामिनः । लब्धतोयाः पयोवाहा, – दुस्तराः सरितो न किम् ? | 159 ||
दूसरों से सम्पत्ति प्राप्त होने पर नीचगमन करने वाले व्यक्ति को उत्कर्ष प्राप्त होता है किंतु वह उपयोगी नही बन सकता। जैसे नदी ( नीचगामी होकर ) समुद्र के पानी को प्राप्त कर क्या अपारता को प्राप्त नहीं करती ? (किंतु वह पीने योग्य नहीं रहती है ।)
न पदं संपदां प्रायः, कुलोत्पन्नोऽपि दुर्मनाः । अन्तर्वक्रोऽब्धिसूः शंखो, दृष्टो भिक्षाकृते भ्रमन् ।। 60 ||
श्रेष्ठ कुल मे उत्पन्न होने पर भी दुष्ट लोगों को प्रायः सम्पत्ति प्राप्त नहीं होती है । पानी में उत्पन्न होने वाला शंख भी वक्र होने पर भिक्षा के लिए भ्रमण करता दिखाई देता हैं ।
भवेद्वस्तुविशेषेण, सुकृते दुष्कृते च धीः । ध्यानधीरक्षमालायां, प्रहारेच्छा च कार्मुके ।। 61 ||
किसी वस्तु विशेष के संयोग वश मानव की बुद्धि सुकर्म अथवा दुष्कर्म में लग जाती है। अक्षमाला को देखकर ध्यान में बुद्धि लग जाती है। तथा धनुष के सम्पर्क के कारण मारने की बुद्धि बन जाती है ।
वपुः शेषोऽप्यपुण्यात्मा, स्वभावं न विमुंचति । जहाति जिह्यतां रज्जु- र्ज्वलिताऽपि न जातुचित् । 162 ||
दुर्जन व्यक्ति केवल शरीर शेष रहने (सब कुछ चले जाने ) पर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है। रस्सी जल जाने पर भी अपनी बट ( कुटिलता) को नहीं छोड़ती है।
सतां नोपप्लवाय स्यु- द्विजिह्वा मिलिता अपि । नैषि संगाद् भुजंगानां, गरलं चन्दनद्रुमः ।। 63 ।।
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