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सार संक्षेप) उपादेय को ग्रहण करने योग्य स्वीकार करते हुए यथार्थ मार्ग खोज निकालने का उपाय भाग २ के माध्यम से समझाया गया है।
उपर्युक्त पुस्तक के भाग ३ के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मानुभूति प्राप्त करने का अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पुरुषार्थ एकमात्र यथार्थ निर्णय ही है। पण्डित टोडरमलजी ने स्पष्ट कहा है कि “मोक्षार्थी का कर्तव्य तो एकमात्र तत्त्व निर्णय का अभ्यास ही है" करणलब्धि प्राप्त जीव का पुरुषार्थ भी यही है कि “वह उस तत्त्व निर्णय में उपयोग को तद्प होकर लगाये, उसके फलस्वरूप उसको आत्मानुभूति प्राप्त होगी।" - ऐसा स्पष्ट कथन, मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिए यथार्थ निर्णय की महत्ता एवं सर्वोत्कृष्ट आवश्यकता सिद्ध करता है। यथार्थ निर्णय में ही ऐसा सामर्थ्य है कि उसके फलस्वरूप श्रद्धा में यथार्थता प्रगट हो सकती है। अत: जैसे भी बने वैसे आत्मार्थी को अपने आत्मस्वरूप का यथार्थ निर्णय कर, उसमें ही “यह मैं हूँ" ऐसा दृढतम विश्वास जाग्रत करना चाहिए। “अयिकथमपिमृत्वा तत्त्व कोतूहलीसन् – अर्थात् किसी भी प्रकार, मरकर भी एक बार तत्त्व को पहिचानने का कोतूहली तो बन” इत्यादि कथनों से इस ही विषय की पुष्टि होती है। ऐसा यथार्थ निर्णय प्राप्त करने की विधि प्रस्तुत पुस्तक में बताई गई है। .
निर्णय करने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय यह है कि हमारे निर्णय का विषय क्या हो? उत्तर होता है - अपना स्वयं का आत्मा। फिर प्रश्न होता है कि वह आत्मा कैसा है? इसका समाधान करने के लिए सर्वप्रथम अपनी आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक हो जाता हैं। अत: अपना यथार्थ स्वरूप समझने के लिए भगवान अरहन्त की आत्मा को दृष्टान्तरूप में प्रस्तुत कर, अपनी आत्मा का स्वरूप समझाने वाली प्रवचनसार की गाथा ८० के माध्यम से अपने स्वरूप को समझने की विधि इस पुस्तक में बताई गई है। उसके द्वारा अपने आत्मा का स्वरूप विस्तारपूर्वक समझाया गया है । मेरी आत्मा अनन्त गुणों से परिपूर्ण सर्वज्ञस्वभावी अरहन्त भगवान के समान है । जिसप्रकार भगवान अरहन्त
का ज्ञान अपने आत्मा में बसे हुए अनन्त गुण के समुदायरूप निज आत्मा Jain Education International
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