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( सुखी होने का उपाय भाग-४ तत्त्व हैं तथा मोक्ष तो परम-उपादेय तत्त्व है। इस निरूपण के माध्यम से अपनी ही पर्यायों में छुपी आत्मज्योति को भिन्न करके समझने का मार्ग बताया गया है। जगत के समस्त पदार्थों को तथा मेरे अन्दर होने वाली अपनी ही पर्यायों को ज्ञेय-ज्ञायक संबंध के यथार्थ ज्ञान द्वारा भेदज्ञान कराकर स्थायी ध्रुवभाव में अहंपना स्थापित कराने का प्रयास किया गया है। साथ ही निश्चय के साथ यथार्थ व्यवहार रहता ही है, मोक्षमार्ग में दोनों की अनिवार्यता एवं विरोधीपना किसप्रकार है इत्यादि अनेक विषयों का ज्ञान कराकर, अपने त्रिकाली ज्ञायकभाव में अहंबुद्धि जागृत हो - इस पर विस्तार से चर्चा की गई है।
उसके माध्यम से आत्मा जब अपनी अन्तर्दशा का अनुसंधान करता है, तो वहाँ उसको एक ओर तो त्रिकाली-स्थायीभाव – ऐसा ध्रुवभाव दिखाई देता है और दूसरी ओर क्षण-क्षण में बदलता हुआ परिवर्तनशीलअस्थायीभाव- ऐसा पर्यायांश दिखाई देता है। आचार्यों ने द्रव्य अर्थात् सत् की परिभाषा भी “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” बताई है। उक्त सत्रूपी द्रव्य में हेय, उपादेय एवं श्रद्धेय की खोज करने के लिए सात तत्त्व के माध्यम से सत् की यथार्थ स्थिति इस पुस्तक के द्वारा समझाई है।
उन सात तत्त्वों में जीव तत्त्व तो ध्रुव है, वह अहं के रूप में श्रद्धेय तत्त्व है, अजीव तत्त्व तो मात्र उपेक्षणीय-परज्ञेयतत्त्व हैं । आस्रव-बंध पर्याय हैं एवं हेयतत्त्व हैं, संवर-निर्जरा पर्याय उपादेय तत्त्व हैं, मोक्षतत्त्व तो परम उपादेय तत्त्व है ही; आस्रव बंध के ही विशेष भेद पुण्य व पाप मिलाकर नवतत्त्व भी कह दिए जाते हैं। पुण्य-पाप भी आस्रव बंध के ही भेद होने से हेय तत्त्व ही हैं।
इसप्रकार अपनी आत्मा की अन्तर्दशा को समझकर ध्रुव रूप स्व-आत्मतत्त्व में अहंपना स्थापित करने की मुख्यता से भेद-ज्ञान एवं भलीप्रकार अनुसंधानपूर्वक उपर्युक्त समस्त स्थिति को समझकर स्व को स्व के रूप में एवं पर को पर के रूप में मानते हुए हेय को त्यागने योग्य,
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