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सार संक्षेप (तीनों भागों का)
प्रस्तुत पुस्तक के विगत तीनों भागों के अध्ययन द्वारा, आप अनेक विषयों के स्पष्टीकरण तो प्राप्त कर ही चुके हैं। उन समस्त विषयों को स्मृति में ताजा करने के लिए उसका सार संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
आत्मार्थी जीव के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता यह है कि उसको आत्मकल्याण करने की जिज्ञासा तीव्रता से जागृत हुई हो। उम्र पिपासा जागृत हुए बिना कितना भी मिष्ट सुगंधित पेय प्रस्तुत किया जावे, तो भी उसको रुचिकर नहीं लगता। इसीप्रकार तीव्र जिज्ञासा प्रकट हुए बिना सरलतम तत्त्वोपदेश भी कल्याणकारी नहीं हो सकता। पात्रता प्रगट होने पर ही सम्यक्त्वसन्मुख जीव को ऐसा विचार आता है कि “ अहो ! मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं, मैं तो भ्रम से भूलकर प्राप्त पर्याय में ही तन्मय रहा; परन्तु इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है । यहाँ मुझे सर्व निमित्त मिले हैं, इसलिए मुझे इन बातों को बराबर समझ लेना चाहिए, क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन भासित होता है - ऐसा विचार. कर जो उपदेश सुना उसके निर्धार करने का उद्यम किया (उद्यम करता है) ।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २५७)
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जिस आत्मार्थी जीव के हृदय में इसप्रकार की तीव्रतम जिज्ञासा जागृत हुई है, वही जीव "सुखी होने के उपाय” की खोज करेगा, पढ़ेगा तथा सुनेगा । अतः आत्मार्थी जीव की उपरोक्त जिज्ञासा ही प्राथमिक अन्तर्दशा है। ऐसा जीव ही प्रस्तुत पुस्तक के अध्ययन द्वारा यथार्थ मार्ग ग्रहण कर अपना कल्याण करेगा ऐसा विश्वास है ।
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इस पुस्तकमाला के प्रथम भाग में अनन्तानन्त द्रव्यों की भीड़-भाड़ में खोई हुई हमारी स्वयं की आत्मा की, अनेक उपायों द्वारा भिन्नता
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