Book Title: Shraman Pratikraman
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ सामाइयं १. आवस्मई-सुत्तं आवस्सई इख्छाकारेण संदिसह भयवं ! देवसियं पडिक्कमणं ठाएमि देवसिय-नाण-दसण-चरित-तव-अइयार-चितवणळं करेमि काउस्सग्गं । संस्कृत छाया शब्दार्थ आवश्यिकी अवश्यकरणीय (में प्रवृत्त होता हूं) इच्छाकारेण आप इच्छापूर्वक संदिशत अनुमति दें, भगवन् ! भगवन् ! देवसिकं दैवसिक प्रतिक्रमणं प्रतिक्रमण में तिष्ठामि स्थित होता हूं, देवसिक दैवसिक ज्ञान-दर्शन-चारित्र ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के तपोऽतिचारचिन्तनार्थ अतिचार का चिन्तन करने के लिए करोमि करता हूं कायोत्सर्गम् कायोत्सर्ग । भावार्थ भगवन् ! मैं अवश्य करणीय कार्य में प्रवृत्त होता हूं । आप मुझे इच्छापूर्वक अनुमति दें। मैं देवसिक प्रतिक्रमण में स्थित होता हूं, देवसिक ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप के अतिचार का चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ। २. नमुक्कार-सुत्तं नमो अरहताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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