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श्रमण प्रतिक्रमण
११. ज्ञान आदि से उपकृत करने वाले आचार्य आदि की सेवा-शुश्रुषा नहीं
करना ।
१२. बार-बार अधिकरण – कलह करना ।
१३. वशीकरण करना ।
१४. प्रत्याख्यात भोगों की पुनः अभिलाषा करना ।
१५. अबहुश्रुती होते हुए भी बार-बार अपने को बहुश्रुती बताना ।
१६. अतपस्वी होते हुए भी तपस्वी बताना ।
१७. प्राणियों को घेर, वहां अग्नि जला, धुएं की घुटन से उन्हें मारना ।
१८. अपने अकृत्य को दूसरे के सिर मढना ।
१९. विविध प्रकार की माया से दूसरों को ठगना ।
२०. अशुभ आशय से सत्य को मृषा बताना ।
२१. सदा कलह करते रहना ।
२२. विश्वास उत्पन्न कर दूसरे के धन का अपहरण करना ।
२३. विश्वास उत्पन्न कर दूसरों की स्त्रियों को लुभाना ।
२४. अकुमार होते हुए भी अपने को कुमार कहना ।
२५. अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहना ।
२६. जिसके द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त किया, परोक्ष में उसी के धन की वांछा
करना ।
२७. जिसके प्रभाव से कीर्ति प्राप्त की उसी को ज्यों-त्यों अन्तराय देना । २८. राजा, सेनापति, राष्ट्रचिन्तक आदि जन नेताओं को मारना । २९. देव - दर्शन न होते हुए भी 'मुझे देव - दर्शन होता है' - ऐसा कहना । ३०. देवों की अवज्ञा करते हुए अपने आपको देव घोषित करना ।
२५. सिद्धों के आदि गुण (समवाओ, ३१1१ )
आदि-गुण का अर्थ है - मुक्त होने के प्रथम क्षण में होने वाले गुण । उनकी संख्या इकतीस है । संख्या दो प्रकार से बतलाई गई है - आठों कर्मों के क्षय की निष्पत्ति के आधार पर -
१. ज्ञानावरणीय कर्म की पांचों प्रकृतियों की क्षीणता से निष्पन्न गुण ५
नौ
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२. दर्शनावरणीय ३. आयुष्य ४. अन्तराय ५. वेदनीय ६. मोहनीय
७. नाम
८. गोत्र
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