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श्रमण प्रतिक्रमण
२२. आचार-प्रकल्प
इसके दो अर्थ हैं-१. आचारांग का एक अध्ययन जो निशीथ कहलाता है तथा २. साध्वाचार का व्यवस्थापन ।
इसका अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है
१. आचार--- आचारांग सूत्र के दोनों क्षुतस्कंधों के (१६+९) पचीस अध्ययन ।
२. प्रकल्प--निशीथ के तीन अध्ययन ।
हरिभद्र ने आचारांग को ही आचार-प्रकल्प मानकर उपरोक्त (२५+ ३) अध्ययनों को गिनाया है । (वृत्ति, पृष्ठ ११३) २३. पापश्रुतप्रसंग (समवाओ, २९।१)
जो शास्त्र पाप या बन्धन का उपादान होता है उसे 'पापश्रुत' कहा जाता है । प्रसंग के दो अर्थ हैं-आसक्ति और आसेवन । पापश्रुतप्रसंग के उनतीस प्रकार ये हैं
१. भौम २. उत्पात ३. स्वप्न ४. अन्तरिक्ष ५ अंग ६. स्वर ७. व्यञ्जन ८. लक्षण-इन आठों के सूत्र, वृत्ति और वात्तिक-ये तीन-तीन प्रकार होते हैं । २५. विकथानुयोग २६. विद्यानुयोग २७. मंत्रानुयोग २८. योगानुयोग २९. अन्यतीर्थिक-प्रवृत्तानुयोग । २४. मोहनीय के स्थान
इसका तात्पर्य है-महामोहनीय कर्मबंध के तीस कारण हैं । प्रश्नव्याकरण (वृत्ति पत्र ८६, ८७), उत्तराध्ययन (वृत्ति पत्र ६१७, ६१८) तथा दशाश्रुतस्कंध (दशा नौ) में इन तीस स्थानों का उल्लेख प्राप्त होता है । उनमें कुछ भिन्नता भी है । प्रश्नव्याकरण की वृत्ति के अनुसार वे तीस स्थान ये हैं : १. त्रस जीवों को पानी में डूबो कर मारना । २. हाथ आदि से मुख आदि अंगों को बंद कर प्राणी को मारना । ३. सिर पर चर्म आदि बांधकर मारना । ४. मुद्गर आदि से सिर पर प्रहार कर मारना । ५. प्राणियों के लिए जो आधारभूत व्यक्ति हैं, उन्हें मारना । ६. सामर्थ्य होते हुए भी कलुषित भावना से ग्लान की औषधि आदि से
सेवा न करना। ७. तपस्वियों को बलात् धर्म से भ्रष्ट करना । ८. दूसरों को मोक्षमार्ग से विमुख कर अपकार करना । ९. जिनदेव की निन्दा करना । १०. आचार्य आदि की निन्दा करना ।
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