Book Title: Shraman Pratikraman
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ १. ज्ञान के अतिचार आगमेतिविपन्नते, तं जहा - सूत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे आगम पाठ का विपर्यास, मूल पाठ में अन्य पाठ का मिश्रण, अक्षरों की न्यूनाधिकता, पद, विराम, घोष व सम्बन्ध की हीनता, ज्ञान को विधिवत् न लेना और न देना, अकाल में स्वाध्याय, काल में अस्वाध्याय, अस्वाध्यायी में स्वाध्याय, स्वाध्यायी में अस्वाध्यायी - इस प्रकार ज्ञान की आराधना में अतिक्रमण किया हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । २. दर्शन के अतिचार परिशिष्ट १ अरहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो जिणपण्णत्तं तत्तं इयं सम्मत्तं मए गहियं । तत्त्व में शंका, अतत्त्व की आकांक्षा, करनी के फल में संदेह, कुतत्त्वगामी की प्रशंसा व उनसे संपर्क - इस प्रकार दर्शन की आराधना में अतिक्रमण किया हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । ३. चारित्रातिचार १. आहिंसा महाव्रत १. पृथ्वी काय - खनिज मिट्टी, धातु, द्रव आदि । २. अकाय-पानी, ओस, हिम, कुहासा आदि । ३. तेजस्काय - अग्नि, अंगारे आदि । ४. वायुकाय-सचित्त वायु- फूंक देना, पंखे व वस्त्र से वीजना आदि । ५. वनस्पतिकाय - बीज, हरियाली, फफुंदी आदि । ६. काय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संमूच्छिम तथा गर्भज पंचेन्द्रिय | - इस प्रकार छह जीवनिकाय की विराधना मन से, वचन से, काया से की हो, कराई हो, करते हुए का अनुमोदन किया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । ' Jain Educationa International भावना १. मन में हिंसा, घृणा और ईर्ष्या का विकल्प न उठे १. तस्स मिच्छामि दुक्कडं से पूर्व सर्वत्र त्रिकरण, त्रियोग गम्य हैं। For Personal and Private Use Only इस भावना www.jainelibrary.org

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