Book Title: Shraman Pratikraman
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 70
________________ श्रमण प्रतिक्रमण से मेरा चित्त भावित रहे । २. आक्रोश, कलह और कटुतापूर्ण वचन का प्रयोग न हो-इस भावना से मेरा चित्त भावित रहे। ३. मैत्री, प्रमोद और करुणा की भावना से मेरा चित्त भावित रहे । २. सत्य महावत क्रोध, लोभ, भय और हास्यवश असत्य बोलकर सत्य महाव्रत की विराधना की हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । भावना १. बिना विचारे न बोलं - इस भावना से मेरा चित्त भावित रहे । २. क्रोध, लोभ, भय और हास्य का विकल्प न उठे---इस भावना से मेरा चित्त भावित रहे। ३. अचौर्य महाव्रत स्वामी की अनुमति के बिना अल्प-मूल्य या बहु-मूल्य वस्तु ग्रहण कर तथा देव और गुरु की आज्ञा का भंग कर अचौर्य महाव्रत की विराधना की हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । भावना १. प्रामाणिकता की भावना से मेरा चित्त भावित रहे। २. आज्ञा, अनुशासन और मर्यादा की भावना से मेरा चित्त भावित रहे। ३. अपने संविभाग से अधिक न लूं-इस भावना से मेरा चित्त भावित रहे। ४. अपने दायित्व के प्रति जागरूक रहूं-- इस भावना से मेरा चित्त भावित रहे। तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । आयारभावतेणे य, कुव्वइ देवकिविसं ॥ ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत ___ काम-राग, स्नेह-राग, दृष्टि-रागवश ब्रह्मचर्य महाव्रत की विराधना की हो, तस्य मिच्छा मि दुक्कडं । भावना १. खाद्य-संयम, दृष्टि-संयम और स्मृति-संयम की भावना से मेरा चित्त भावित रहे। २. वासना को उद्दीप्त करने वाली चर्चा और विभूषा से बचता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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