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श्रमण प्रतिक्रमण
दुमरे प्रकार के संख्या-आकलन में संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और वेद-ये छह घटक तत्त्व हैं१. संस्थान-आयत, वृत्त, व्यंस, चतुरस्र, परिमंडल । २. वर्ण कृष्ण, नील, रक्त, पीत, शुक्ल । ३. गंध - सुरभिगंध, दुरभिगंध । ४. रस ---तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल, मधुर । ५. स्पर्श-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष । ६. वेद-स्त्री, पुरुष, नपुंसक ।
इन सब गुणों के साथ 'नकार' लगाना चाहिए। जैसे वे न दीर्घ हैं, न ह्रस्व हैं आदि-आदि ।
इनके अतिरिक्त तीन गुण और हैं--अशरीरी, अजन्मा, अनासक्त । इनका कुलयोग इकतीस होता है । २६. योगसंग्रह (समवाओ, ३२११)
जैन परंपरा में योग शब्द मन, वचन, काया की प्रवृति के लिए प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत प्रसंग में योग शब्द समाधि का वाचक है। यहां जिन बत्तीस योगों का संग्रहण किया है, वे सब समाधि के कारणभूत हैं ।
१. आलोचना-अपने प्रमाद का निवेदन करना । २. निरपलाप-आलोचित प्रमाद का अप्रकटीकरण । ३. आपत्काल में दृढ़धर्मता-किसी भी प्रकार की आपत्ति में दृढ़धर्मी बने
रहना। ४. अनिश्रितोप्रधान-दूसरों की सहायता लिए बिना तपःकर्म करना । ५. शिक्षा-सूत्रार्थ का पठन-पाठन तथा क्रिया का आचरण । ६. निष्प्रतिकर्मता- शरीर की सार-संभाल या चिकित्सा का वर्जन । ७. अज्ञातता-अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन या प्रख्यापन नहीं __करना। ८. अलोभ-निर्लोभता का अभ्यास करना । ९. तितिक्षा-कष्ट-सहिष्णुता, परीषहों पर विजय पाने का अभ्यास
करना। १०. आर्जव -सरलता । ११. शुचि-पवित्रता-सत्य, संयम आदि का आचरण । १२. सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन की शुद्धि । १३. समाधि-चित्त-स्वास्थ्य । १४. आचार-आचार का सम्यग् प्रकार से पालन करना, उसमें माया न
करना।
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