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૫૪
पारयामि
तावत्
कार्य
स्थानेन
मौनेन
ध्यानेन
आत्मानं '
व्युत्सृजामि
भावार्थ
पूरा कर लेता ( कायोत्सर्ग )
तब तक
काया को स्थान- स्थिर मुद्रा
मौन (और)
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श्रमण प्रतिक्रमण
(शुभ) ध्यान के द्वारा अपनी आत्मा (शरीर) का त्याग करता हूं ।
शल्य -
मैं अविधिकृत आचारण के परिष्कार, प्रायश्चित्त, विशोधन और य-विमोचन द्वारा पाप कर्मों को नष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूं । उच्छ्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, जम्हाई, डकार, अधोवायु, चक्कर, पित्तजनितमूर्च्छा, शारीरिक अवयवों, कफ और दृष्टि का सूक्ष्म संचालन- ये प्रवृत्तियां कायोत्सर्ग में बाधक नहीं बनेंगी । इस प्रकार की अन्य स्वाभाविक और विकारजनित बाधाओं के द्वारा भग्न और विराधित नहीं होगा मेरा कायोत्सर्ग । जब तक मैं अर्हत् भगवान् को नमस्कार कर उसे सम्पन्न न करूं तब तक मैं स्थिर मुद्रा, मौन और शुभ ध्यान के द्वारा अपने शरीर का विसर्जन करता हूं ।
६. चउवीसत्थव - सुत्तं'
१. हारिभद्रया वृत्ति - प्राकृतशैल्या आत्मीयं । २. देखें- दूसरा प्रकरण ।
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