Book Title: Shraman Pratikraman
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 17
________________ ३ वंदणय-सुत्त इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं, जावणिज्जाए निसीहियाए । अणुजाण मे मिउग्गहं । निसीहि अहोकायं काय-संफासं । खमणिज्जो किलामो । अप्पकलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो ? जत्ता भे ? जवणिज्जं च भे ? खामि खमासमणो ! देवसियं वइक्कमं । आवसियाए पक्किमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्मा इक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । संस्कृत छाया इच्छामि क्षमाश्रमण ! वन्दितं, यमनीयया निषद्यया अनुजानीत मितावग्रहम् । निषद्य अधः कार्य कायसंस्पर्शम् । शब्दार्थ इच्छा करता हूं हे महाश्रमण ! Jain Educationa International वंदणयं वन्दना करने के लिए संयत निषद्या से संयम पूर्वक बैठकर, अनुज्ञा दें मुझे faraग्रह' में ( प्रवेश करने की ) । बैठकर ( गुरु के ) चरण को अपने शरीर से (मस्तक से ) स्पर्श करता हूं । १. अवग्रह — गुरु जहां अवस्थित हों, वहां चारों दिशाओं में उनके साढ़े तीन-तीन हाथ का क्षेत्र 'अवग्रह' होता है । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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