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वंदणय-सुत्त
इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं, जावणिज्जाए निसीहियाए । अणुजाण मे मिउग्गहं । निसीहि अहोकायं काय-संफासं । खमणिज्जो किलामो ।
अप्पकलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो ? जत्ता भे ?
जवणिज्जं च भे ?
खामि खमासमणो ! देवसियं वइक्कमं ।
आवसियाए पक्किमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्मा इक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
संस्कृत छाया
इच्छामि
क्षमाश्रमण !
वन्दितं,
यमनीयया निषद्यया
अनुजानीत
मितावग्रहम् । निषद्य अधः कार्य
कायसंस्पर्शम् ।
शब्दार्थ
इच्छा करता हूं
हे महाश्रमण !
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वंदणयं
वन्दना करने के लिए
संयत निषद्या से संयम पूर्वक बैठकर,
अनुज्ञा दें
मुझे
faraग्रह' में ( प्रवेश करने की ) । बैठकर
( गुरु के ) चरण को
अपने शरीर से (मस्तक से ) स्पर्श करता हूं ।
१. अवग्रह — गुरु जहां अवस्थित हों, वहां चारों दिशाओं में उनके साढ़े तीन-तीन हाथ का क्षेत्र 'अवग्रह' होता है ।
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