________________
श्रमण प्रतिक्रमण
६. अतिमात्रा में आहार न करना ७. पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोगों की स्मृति न करना ८. इन्द्रिय-विषयों तथा श्लाघा में आसक्त न होना
(हरिभद्र सूरि ने आवश्यक की टीका में इन नौ गुप्तियों में प्रथम सात को व्यत्यय से माना है और शेष दो के स्थान पर-विभूषा न करना और मैथुनरत स्त्रियों के क्वणित को न सुनना-माना है।) ४. दस प्रकार का श्रमण-धर्म (समवाओ, १०।१)
१. क्षान्ति-क्षमा, क्रोध का विवेक २. मुक्ति - आकिञ्चन्य, लोभ का विवेक ३. आर्जव-ऋजुता, माया का विवेक ४. मार्दव-मृदुता, मन का विवेक ५. लाघव-हल्कापन, अप्रतिबद्धता ६. सत्य ७. संयम ८. तप ९. त्याग–साधर्मिक साधुओं को भोजन आदि देना १०. ब्रह्मचर्यवास । ५. उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं (समवाओ, ११११)
प्रतिमा का अर्थ है--प्रतिज्ञा, अभिग्रह-विशेष। श्रमणोपासक की ग्वारह प्रतिमाएं हैं
१. दर्शनश्रावक-यह पहली प्रतिमा है । इसका कालमान एक मास का
२. कृतव्रतकर्म-यह दूसरी प्रतिमा है । इसका कालमान दो मास का
३. कृतसामायिक- यह तीसरी प्रतिमा है । इसका कालमान तीन मास
का है। ४. पोषधोपत्रासनिरत-यह चौथी प्रतिमा है। इसका कालमान चार
मास का है। ५. दिन में ब्रह्मचारी-यह पांचवीं प्रतिमा है। इसका कालमान पांच __मास का है। ६. दिन और रात में ब्रह्मचारी-यह छठी प्रतिमा है । इसका कालमान
छह मास का है। ७. सचित्त-परित्याग–यह सातवी प्रतिमा है। इसका कालमान सात
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org