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श्रमण प्रतिक्रमण
६. मृषाप्रत्ययिक---झूठ बोलने की प्रवृत्ति करना ७. अदत्तादानप्रत्ययिक-चोरी की प्रवृत्ति करना ८. अध्यात्म (मनः) प्रत्ययिक--अन्तर्मन से सावध प्रवृत्ति करना ९. मानप्रत्ययिक--अहंकार के वशीभूत होकर प्रवृत्ति करना १०. मित्रद्वेषप्रत्ययिक-अपने ज्ञातिजनों के अल्प अपराध पर भारी
दंड देना ११. मायाप्रत्ययिक--मायायुक्त प्रवृत्ति करना १२. लोभप्रत्ययिक-लोभ के वशीभूत होकर सावद्य प्रवृत्ति करना १३. ऐर्यापथिक-समिति और गुप्ति की साधना में संलग्न अनगार वीत
राग की प्रवृत्ति
इनमें प्रथम बारह अग्राह्य और तेरहवां क्रियास्थान उपादेय है । ८. चौदह भूतग्राम-जीव-समूह (समवाओ, १४११) १. सूक्ष्म अपर्याप्तक
८. त्रीन्द्रिय पर्याप्तक २. सूक्ष्म पर्याप्तक
९. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक ३. बादर अपर्याप्तक १०. चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक ४. बादर पर्याप्तक
११. असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक ५. द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक १२. असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक ६. द्वीन्द्रिय पर्याप्तक १३. संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक
७. श्रीन्द्रिय अपर्याप्तक १४. संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक ९. परमाधार्मिक देवों के पन्द्रह प्रकार (समवाओ, १५॥१) १. अंब
६. उपरौद्र ११. कुंभ २. अंबरिसी ७. काल
१२. बालुका ३. श्याम ८. महाकाल १३. वैतरणी ४. शबल ९. असिपत्र
१४. खरस्वर १०. धनु
१५. महाघोष १०. सूत्रकृतांग सूत्र के दो श्रुतस्कंध हैं । पहले श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन
हैं । सोलहवें अध्ययन का मूल नाम है 'गाथा' । वह सोलहवां होने के कारण 'गाथा-षोडषक' कहलाता है। यह नाम प्रथम श्रतस्कंध का
वाचक है। ११. सतरह प्रकार का असंयम (समवाओ, १७३१) ।
१. पृथ्वीकाय असंयम ४. वायुकाय असंयम २. अप्काय असंयम
५. वनस्पतिकाय असंयम ३. तेजस्काय असंयम
६. द्वीन्द्रिय असंयम
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