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श्रमण प्रतिक्रमण
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श्रमणोऽहं
मैं श्रमण हूं संयत
संयत हूं विरत
विरत हूं प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा मैंने अपने पापकर्मों को प्रतिहत और
प्रत्याख्यात कर दिया है अनिदानः
मैं निदान-मुक्त हूं दृष्टिसम्पन्नः
दृष्टि-सम्पन्न हूं मायामृषाविवर्जकः
मायामृषा का विवर्जन करनेवाला हूं अर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु
ढाई द्वीप-समुद्रों में पञ्चदशसु कर्मभूमिष
पन्द्रह कर्मभूमियों में यावन्तः
जो केचन साधवः
कोई साधु हैं रजोहरण
रजोहरणगुच्छ
गोच्छकप्रति ग्रहधराः
पात्रके धारक हैं पञ्चमहावतधराः
पांच महावतों के धारक हैं अष्टादशशीलांगसहस्रधराः अठारह हजार शीलांगों के धारक हैं अक्षताचारचरित्राः
अक्षत आचार और चरित्रवाले हैं तान् सर्वान्
उन सबको शिरसा
मस्तक से मनसा
मन से मस्तकेन (मस्तके अञ्जलि कृत्वा) ललाट से (ललाट पर अञ्जलि
रखकर) वंदे।
वन्दना करता हूं भावार्थ
मैं ऋषभ से लेकर महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करता हूं । यह निग्रंथ प्रवचन ही सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, मोक्ष में ले जानेवाला, सर्वतः शुद्ध, माया, निदान और मिथ्यादर्शन-इन तीनों शल्यों को छिन्न करने वाला है।
यह सिद्धि, मुक्ति, निर्याण (मोक्ष), निर्वाण (शांति) का मार्ग है। यह सत्य, अविच्छिन्न और सर्व दुःखों के प्रहाण का मार्ग है।
इस निग्रंथ प्रवचन में स्थित मनुष्य सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्व त होते हैं तथा सब दुःखों का अन्त करते हैं।
मैं इस निग्रंथ धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता हूं। इसका
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