Book Title: Shraman Pratikraman
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 46
________________ श्रमण प्रतिक्रमण मैंने गर्हितं मया आलोचित आलोचना की है निदितं निन्दा की है गर्दा की है जुगुप्सितं जुगुप्सा की है सम्यक् । सम्यक् प्रकार से। त्रिविधेन तीन करण तीन योग से प्रतिक्रान्तः प्रतिक्रान्त (प्रतिक्रमण किया हुआ) होकर वन्दे वन्दना करता हूं जिनान् जिनों को चतुर्विशतिम। चौबीस । भावार्थ मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं सब जीव मुझे क्षमा करें। सब जीवों के साथ मेरी मैत्री है। किसी के साथ मेरा वैर नहीं है। इस प्रकार मैंने सम्यक् रूप में अतिचारों की आलोचना, निंदा, गर्दा और जुगुप्सा की है । मैं तीन करण और तीन योग से प्रतिक्रांत होकर चौबीस तीर्थंकरों को वन्दना करता हूं। १५. इच्छामि खमासमणो......(वंदणयसुत्तं) १६. पंचपद वंदना १७. खामणा-सुत्तं इच्छामि खमासमणो उवडिओमि अभितर-पक्खियं खामेउं पन्नरसण्हं दिवसाणं पन्नरसण्हं राईणं जं किंचि अपत्तियं परपत्तियं भत्ते पाणे विणये वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए जं किंचि मज्झ विणयपरिहीणं सुहुमं वा बायरं वा तुब्भे जाणह अहं न याणामि तस्स मिच्छामि दुक्कडं। संस्कृत छाया शब्दार्थ इच्छामि चाहता हूं क्षमाश्रमण ! हे क्षमाश्रमण ! उपस्थितोऽस्मि उपस्थित होता हूं आभ्यन्तर-पाक्षिक पक्ष के भीतर १. परिशिष्ट २। २. यह सूत्र पाक्षिक आदि क्षमायाचना का है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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