Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 21
________________ द्वारका - -- - - - - manaam - unaww v ie- - - - - - - - मनको तसल्ली देते रहते हैं। उनमें से कोई कोई आसकती। यह जगत धीरे धीरे पतित होरहा है. कल्पनाएँ ऐसी भी होती हैं जो कि शताजियों अब इसका कोई क्या सुधार करेगा ? आदि। की साधना से प्रत्यन होजाती हैं। जैसे मनुष्य इसप्रकार वह मानवजाति की उन्नति में विश्वास ने पक्षियों को उड़ता देखकर मनुष्य के उड़ने की नहीं करता, पतन को स्वाभाविक समझता है। कल्पना की । वह स्वयं तो उड़ नहीं सकता था इन्हीं सब विचागे के कारण वह नवीन रूप में इसलिये उसने कल्पना सृष्टि में परियो की, गरुड़ आये हुए विचारसत्य का विरोध करता है। आदि पतिवाहनो की, दिव्य और यांत्रिक विमानो और जब कोई विचारक समाज के विकारो को की कल्पना की । अवतारी कहलाने वाले व्यक्तियो दूर करने के लिये, अर्थात या समाज के कल्याण मे उनका आरोप कर उनके पुराण बनाये । शता- के लिये समाज के सामने नये विचार रखता है दियो बाद मनुष्य की साधना से सचमुच के तब प्राचीनतामोही इस विचार सत्य का विरोध वायुयान बनगये। तब इस साधना के महत्व को करने के लिये कमर कसता है । वह नये विचारक भूल कर पुरानी कल्पनाकथाओ को महत्त्व देना से कहता हैअन्याय है। 'हमारे पूरखे क्या मूर्ख थे? क्या तुम्हारे वास्तव में हर एक आविष्कार का यह बिना उनका उद्धार नहीं हुमा क्या तुम उनसे नियम है कि वह पहिले कल्पना में आता है। बढ़कर हो १ उन्हीं की जूठन खाकर तुम पले हो, और किसी महान आविष्कार की कल्पना तो अब उनसे बड़ा बनना चाहते हो । उनकी भूलें पीडियो और शतातियो तक बनी रहती है। निकालते हो? तब तक वह कहानियाकी कथावस्तु बनजानी है। वह प्राचीनता मोही या अवसर्पणवादी, पर यह भूलना न चाहिये कि वह कल्पना है। यह नही सोचना कि हमारे पुरखो के पास इसे वह इतिहास न समझले । पर प्रबल प्राचा- सतनी पूंजी थी वह तो हमे मिली ही है साथ नता मोह इस भ्रम को दूर नहीं करने देता। ही इतने समय में जगत ने जो ज्ञान कमाया है। प्राचीनतामोड़ी इस अमसे तथा उपयुक्त वह भी पूंजी के रूप में हमें मिला हैं, ऐसी दोपो से अपनी और जगत की बड़ी हानि करता हालत में हम व्यक्तित्व की दृष्टि से न सही, पर है। एक तरह से उसके लिये उन्नति का द्वार ज्ञान भडार की दृष्टि से बढ़गये हों तो इसमे, बन्द होजाता है वह था उसका समाज मौत आश्चर्य क्या है ? वरिक यह स्वाभाविक या की राह में जाने लगता है। सुधारकता, या युग छावश्यक है। के अनुरूप परिवर्तन करने की क्षमता नष्ट होजाती दुसरी बात यह है कि पूर्वपुरुप ० र अपेक्षा कितने ही ज्ञानी क्यो न हो, पर देश १ । भोजन और शौच ( मलत्याग) जीवन के के अनुसार परिवर्तन या सुधार करने से - लिये आवश्यक है। पर प्राचीनतामोही समाज अबहेलना नहीं होती । अगर आज चे होते त न युग के अनुरूप नई खुराक ले सकता है, न वे भी देश काल के अनुसार सुधार करते। युग के प्रतिकूल पुगनी पीहुइ खुराक को दूर जब हम बालक ये तब मा बाप ने उ करसकता है । यह मौत की या पतन की राह है। परिस्थिति के अनुसार छोटा कोट यसपालि प्राचीनता मोही साधारणत अवसर्पणवादी था, गरमी के दिनों में पतला कुर्ता बन लि. (नशोवादिर--अवनातेवादी) होता है। वह था, अब उनके मरने के बाद जीवनभर हम सोचता है-जितना कुछ सत्य था वह भूतकाल कोट ही पहिने या शीत ऋतु आजाने पर में आधुका, हमारे पुरतों को प्राप्त होचुका, अब पतला कुता ही पहिनें क्या यह दचित होगा उसमें कोई सुधार संशोधन या नवीनता नहीं अगर हमें कोई सलाह दे कि समशन

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