Book Title: Saraswati 1937 01 to 06
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 16
________________ सरस्वती ये थोड़े दिनों तक एक पदाधिकारी भी रहे। इनकी कुछ कवितायें बड़ी प्रशंसा की दृष्टि से देखी जाती हैं । मृत्यु के समय इन्होंने कहा था- - "ईश्वर, अब मेरी आत्मा को स्वीकार कर ।" ये शब्द उनके धार्मिक विचारों के प्रतिबिम्ब हैं । कीट्स (जान) १७९५-१८२१ -- इन्होंने पहले चिकित्सा-शास्त्र पढ़ा और थोड़े दिनों तक एक डाक्टर के साथ काम भी सीखा । परन्तु अन्त में यह सब छोड़कर सरस्वती के उपासक बन गये । अँगरेजा - भाषा के कवियों में इनका स्थान बहुत ऊँचा है। इनकी कविता की जो प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है । विद्वत्ता और दरिद्रता की मित्रता है । ये भी धनाभाव से पीड़ित रहते थे। पैतृक सम्पत्ति बहुत कुछ ‘सिकुड़' आई थी और स्वास्थ्य ने भी साथ छोड़ दिया था । बहुत दिनों से क्षय रोग का भय हो रहा था और वही आख़िर में ठीक निकला। एक स्त्री से इनका सफल प्रेम था । अँगरेज़ी की एक कविता का भावार्थ यह है कि सब वेदनाओं से अधिक यह वेदना है कि किसी का किसी से असफल प्रेम हो । इन्होंने स्वयं अपना मृत्यु-आलेख लिखा था - " यहाँ वह लेटा हुआ है जिसका नाम पानी पर लिखा है ।" कितने भावपूर्ण शब्द । इनको फूलों का बड़ा शौक था। इनका आख़िरी वाक्य यह था - "मुझे मालूम होता है कि जैसे मुझ पर फूल उग रहे हों । " मेकाले, टामस बैबिग्टन (लार्ड) १८००-१८५९ये इतनी तीव्र बुद्धि के थे कि चार ही वर्ष में स्कूल से कालेज पहुँच गये । ये गणित से बहुत घबराते थे और हमेशा इसका उन्हें डर रहता था । इन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा पास की, परन्तु इस पेशे से इनको वैसी रुचि नहीं थी — ये साहित्य की तरफ खिँच गये । १८२५ में इन्होंने मिल्टन पर एक लेख लिखा था । इस लेख से साहित्य में इनका स्थान निश्चित हो गया। जब ये पार्लियामेंट में पहुँचे और 'रिफ़ार्म- बिल' पर स्पीच दी तब लोगों को मालूम हुआ कि ये बड़े भारी वक्ता भी हैं । इनका 'हाथ खुला' हुआ था, इस वजह से रुपया की कमी रहती थी और इसी वजह से १०,००० पौंड का सालाना वेतन स्वीकार कर ये भारत सरकार के क़ानूनी सलाहकार के रूप में १८२४ में हिन्दुस्तान आये थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat इनके ज़ोर देने की वजह से की शिक्षा दी जाने लगी। [ भाग ३८ हिन्दुस्तानियों को अँगरेज़ी १८३८ में ये वापस गये । इतिहास और निबन्ध के नामी लेखक थे । एक ने इनकी प्रशंसा में कहा है कि किसी विद्यार्थी का इससे अधिक अभाग्य नहीं हो सकता है कि इनकी शैली का अनुसरण करे | इन्होंने मरने के वक्त कहा था - "अव मैं जीवन के मञ्च पर से हहूँगा । मैं बहुत थक गया हूँ ।" नेपोलियन बोनापार्ट) १७६९ - १८२१ - नेपोलियन के सम्बन्ध में किसी का यह कहना है कि जो उन्हें नहीं जानता है, यह सूचित करता है कि वह स्वयं अपरिचित है। मिल्टन ने अपने 'पेराडाइज़ लास्ट' में लिखा है कि शैतान ने एक मौके पर कहा था - नाट टु नो मी इज़ टु अगूं योर सेल्फ अननोन । अर्थात् मुझे न जानना इस बात का प्रमाण है कि स्वयं तुम्हें कोई नहीं जानता है । यह पंक्ति व अँगरेज़ी में एक प्रसिद्ध लोकोक्ति हो गई है । जब तक भाग्य ने साथ दिया, कीर्ति और विजय नेपोलियन के पीछे दौड़ती थी जैसा किसी के पीछे उनके पहले और उनके बाद कभी नहीं दौड़ी है और बुरे दिन आते ही फिर ऐसा मुँह फेरा कि एक नज़र भी लौटकर नहीं देखा । नेपोलियन की भी निगाह हिन्दुस्तान पर थी और इंग्लैंड से तो वे जलते ही थे, लेकिन उनके इरादे पूरे नहीं हुए । नील और फालगर के युद्धों की असफलता ने उनकी समस्त शक्ति को समाप्त कर दिया। वाटरलू के प्रसिद्ध युद्ध में वे पकड़े गये और सेन्ट हेलिना द्वीप में रहने को भेज दिये गये और वहीं क़ैद में उनकी मृत्यु हो गई। मरने के वक्त उन्होंने कहा था- "हे ईश्वर, फ्रांस की फ़ौज का प्रधान सेनापति ।" यह शायद इस भाव का सूचक है कि हे ईश्वर, फ्रांस की फ़ौज का प्रधान सेनापति श्राज क़ैदी के रूप में मर रहा है । नेपोलियन को सम्राट होने से अधिक अभिमान प्रधान सेनापति होने का था । नेल्सन (हुरेशियो) वाईकाउंट १७५८ - १८०५इन पर इंग्लैंड को उचित अभिमान है । इसमें सन्देह नहीं कि ये एक बहुत बड़े वीर पुरुष थे, और इनके वीरत्व की तुलना केवल इनकी अनुपम देश-भक्ति से की जा सकती है। ट्रेफ़ालगर के युद्ध का इतिहास बिना इनके इतिहास के अपूर्ण है । उस समय इंग्लेंड पर घोर संकट था और देशवासियों से प्रार्थना करते हुए इन्होंने लिखा www.umaragyanbhandar.com

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