Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खारबेल ने अपने लोक मंगलकारी सर्वोदयी आदर्श विचारों एवं आज्ञाओं का प्रचार-प्रसार प्राकृत-भाषा में किया। प्राकृत के जनभाषाई रूप एवं लोकप्रियता के कारण संस्कृत के प्रायः सभी नांटककारों-शूद्रक, भास, कालिदास आदि ने भी अपने संस्कृत-नाटकों में उसे सम्मानित स्थान प्रदान किया। - प्राकृत के व्याकरण सम्बन्धी सिद्धान्तों की कुछ चर्चा प्राचीन आगम-ग्रन्थों में मिलती है। उनमें प्राकृत-व्याकरण के अनेक ग्रन्थों की चर्चा भी आई है। कहा जाता है कि प्राकृतलक्षण (महर्षि पाणिनि), ऐन्द्र व्याकरण(इन्द्र), सद्द-पाहुड (अज्ञात) प्राकृत-व्याकरण ( समन्तभद्र), स्वयम्भू-व्याकरण ( स्वयम्भू ) प्राकृत-साहित्य-रत्नाकर (अज्ञात ) आदि में अपने-अपने ढंग से प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी नियम लिखे गए थे किन्तु आज वे ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं उनमें प्राकृत-लक्षण (चण्ड) प्राकृत-प्रकाश ( वररुचि ) प्राकृत-प्रकाश को मनोरमा टीका (भामह) प्राकृत-मंजरी (कात्यायन), प्राकृत संजीवनी (वसन्तराज), सुबोधिनी (सदानन्द), सिद्धहेमशब्दानुशासन (प्राचार्य हेमचन्द) प्राकृतानुशासन ( पुरुषोत्तम ), प्राकृतशब्दानुशासन (त्रिविक्रम) षड्भाषा-चन्द्रिका ( लक्ष्मीधर) प्राकृतरूपावतार (सिंहराज ) प्राकृतकल्पतरु ( रामशर्मातर्कवागीश, प्राकृतकामधेनु (लंकेश्वर) प्राकृत-चन्द्रिका (शेषकृष्ण) प्राकृतानन्द. ( रघुनाथकवि) प्राकृत-दीपिका ( चण्डीदेव शर्मा) प्राकृतकल्पलतिका (ऋषिकेश) आदि प्रमुख हैं। इनका प्रकाशन अधुनातम वैज्ञानिक पद्धति से हो चुका है तथा देश-विदेश के विश्व विद्यालयों में पाठ्य-ग्रन्थों के रूप में स्वीकृत हैं। प्राकृत-वैयाकरणों ने स्थान एवं काल-भेद के कारण प्राकृतों के अर्धमागधी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, For Private and Personal Use Only

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