Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) प्राकृत में विध्यर्थक प्रधान प्रत्यय 'अणिज्ज' है और 'अणीअ' का प्रयोग मागधी, अर्धमागधी एवं शौरसेनी प्राकृत में बहुलता से मिलता है । . (क) इसमें यह जानना आवश्यक है कि जब धातु में 'तव्व' एवं 'दव्व' प्रत्यय जोड़े जाते हैं, तब उसके साथ 'इ' एवं 'ए' आदेश हो जाते हैं। तथा 'य' प्रत्यय के स्थान पर 'ज्ज' हो जाता है। जैसे :धातु तव्व (अव्व)- अणिज्ज- अणीयप्रत्यय प्रत्यय प्रत्यय श्रु धातु =सुण-सुणअव्वं सुणिज्जं सुणणीग्रं सुणेअव्वं ज्ञा धातु =जाण-जाणिअव्वं जाणणिज जाणणीअं जाणेअव्वं, धृ धातु =धर- धरिश्रव्वं धरणिज्जं धरणीग्रं धरेअव्वं (ख) प्रेरक विध्यर्थक कृदन्त में धातु में प्रेरक प्रत्यय के साथ विध्यर्थ प्रत्यय जोड़ा जाता है। जैसे :- हस + प्रावि +तव्व = हसाविअव्वं । ७. शीलधर्म वाचक (कर्तृवाचक) कृदन्त : शीलधर्म ( स्वभाव ) सूचक अर्थ में धातु के साथ 'इर' प्रत्यय लगता है। जैसे :-हस धातु से-हस + इरे-हसिरो ( हंसने की स्वभाव वाला) हस+इर+पा -हसिरा ( हंसने की स्वभाव वाली),आदि For Private and Personal Use Only

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