Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 93
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृत-भाषा एवं काव्य का महत्व पाइयकव्वस्स नमो पाइयकव्वं च निम्मियं जेण । ताहं चिय पणमामो पढिऊण य जे वि याणंति ॥१॥ प्राकृत काव्य को नमस्कार, प्राकृत-काव्य की रचना करने वालों को नमस्कार और उन्हें पढ़कर जो उनका गूढार्थ समझ लेते हैं, उन्हें भी नमस्कार। गाहाण रसा महिलाण विभमा कइजणाण उल्लावा। कस्स न हरंति हिययं बालाण य मम्मणुल्लावा ॥२॥ प्राकृत-भाषाओं के रस, महिलाओं के विभ्रम ( हाव-भाव ) कवियों की उक्तियाँ और बालकों को तोतली बोली किसके मन को आकर्षित नहीं करती? गाहा रुअइ वराई सिक्खिजति गवारलोएहिं । कीरइ लुचपलुचा जह गाई मंद दोहेहिं ॥३॥ जब गँवार ( अरसिक ) जन प्राकृत-काव्य संखने लगते हैं, तब प्राकृत-गाथा बेचारी रो पड़ती है क्योंकि वे लोग उसे उसी प्रकार नोंच-सरोंच डालते हैं, जिस प्रकार कोई अनाड़ी दुहने वाला गाय के थन को नोंच-खरोंच डालता है। सयलाओ इमं वाया विसंति एतो य णेति वायाओ। ए'ति समुद्दच्चिय णेति सायराओ च्चिय जलाइं ॥४॥ ___सभी भाषाएँ उसी प्रकार इस प्राकृत-भाषा में विलीन हो जाती हैं और इसी प्राकृत-भाषा से निकलती हैं, जिस प्रकार समस्त जल समुद्र में विलीन हो जाता है और समुद्र से ही निकलता है । For Private and Personal Use Only

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