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सरल प्राकृत व्याकरण
डॉ० राजाराम जैन युनिवर्सिटी प्रोफे० (प्राकृत) एवं अध्यक्ष
स्नातकोत्तर-संस्कृत-प्राकृत विभाग ह० दा० जैन कॉलेज, पारा (बिहार)
(मगध विश्वविद्यालय)
प्राच्य भारती प्रकाशन
१९६०
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सरल प्राकृत व्याकरण
पक्ष ..
डॉ० राजाराम जैन युनिवर्सिटी प्रोफे० (प्राकृत) एवं अध्यक्ष
स्नातकोत्तर-संस्कृत-प्राकृत विभाग ह० दा० जैन कॉलेज, मारा (बिहार)
(मगध विश्वविद्यालय)
प्राच्य भारती प्रकाशन
१९६०
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प्रकाशक:रत्नासागर M. Sc. महाजन टोली नं २, आरा-८०२३०१ (बिहार)
संशोधित संस्करण जनवरी, १६६० मूल्य १५/- मात्र १४/
मुद्रक :मनता प्रिंटिंग प्रेस, आरा।
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विषयानुक्रम
भूमिका
पहला पाठ - वर्णमाला ( १२ )
दूसरा पाठ - प्राकृत भाषा के सामान्य नियम (२-१३ )
w
तीसरा पाठ - सन्धियाँ, परिभाषा एवं भेद-प्रभेद - आदि (१३ - २१)
चौथा पाठ - कृदन्त ( २१ - २६ )
१ वर्तमान कालिक कृदन्त भेद-प्रभेद आदि २ भूतकालिक कृदन्त
३ भविष्यत् ४ सम्बन्ध सूचक भूत कृदन्त. ५ हेत्वर्थक ६ विध्यर्थक कृदन्त
७ शीलधर्म ( कर्तृ ) वाचक कृदन्त
पाँचवाँ पाठ-तद्धित - प्रकरण (३०-३५ ) १ अपत्यार्थक
२ तुलनात्मक ३ मत्वर्थीय
४ भावात्मक ५ इदमार्थक
६ सादृश्यार्थक ७ भवार्थक ८ आवृत्यार्थक
९ कालार्थक १० परिमाणार्थक ११ विभक्त्यर्थ १२ स्वार्थिक
छठवाँ पाठ - स्त्री - प्रत्यय, नियम आदि ( ३५-४० )
सातवाँ पाठ - कारक एवं विभक्तियाँ, (४० - ४६ )
- कारक एवं विभक्ति में अन्तर तथा अन्य नियम - कारकों की संख्या तथा सोदाहरण परिभाषाएँ
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i-iii
१३
२२
२४
२६
२८
२६
WWW
mr m
०
३०
Ov
mmmmmr mr x
३२
३४
३५
३५
४१
४३
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(ii )
खारबेल ने अपने लोक मंगलकारी सर्वोदयी आदर्श विचारों एवं प्रज्ञाओं का प्रचार-प्रसार प्राकृत भाषा में किया ।
प्राकृत के जनभाषाई रूप एवं लोकप्रियता के कारण संस्कृत के प्रायः सभी नाटककारों - शूद्रक, भास, कालिदास आदि ने भी अपने संस्कृत - नाटकों में उसे सम्मानित स्थान प्रदान किया । प्राकृत के व्याकरण सम्बन्धी सिद्धान्तों की कुछ चर्चा प्राचीन आगम ग्रन्थों में मिलती है। उनमें प्राकृत-व्याकरण के अनेक ग्रन्थों की चर्चा भी आई है। कहा जाता है कि प्राकृतलक्षण (महर्षि पाणिनि ), ऐन्द्र व्याकरण (इन्द्र), सद्द - पाहुड (अज्ञात) प्राकृत-व्याकरण ( समन्तभद्र ), स्वयम्भू व्याकरण ( स्वयम्भू ) प्राकृत साहित्य - रत्नाकर ( अज्ञात ) आदि में अपने-अपने ढंग से प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी नियम लिखे गए थे किन्तु आज वे ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । जो उपलब्ध हैं उनमें प्राकृत - लक्षण ( चपड ) प्राकृत - प्रकाश ( वररुचि ) प्राकृत प्रकाश को मनोरमा टीका ( भामह) प्राकृत - मंजरी ( कात्यायन), प्राकृत संजीवनी ( वसन्तराज ), सुबोधिनी (सदानन्द), सिद्धहेमशब्दानुशासन (प्राचार्य हेमचन्द ) प्राकृतानुशासन ( पुरुषोत्तम ), प्राकृतशब्दानुशासन ( त्रिविक्रम ) षड्भाषा चन्द्रिका ( लक्ष्मीधर ) प्राकृतरूपावतार ( सिंहराज ) प्राकृतकल्पतरु ( रामशर्मातर्क वागीश, प्राकृतकामधेनु ( लंकेश्वर ) प्राकृत- चन्द्रिका ( शेषकृष्ण ) प्राकृतानन्द ( रघुनाथकवि ) प्राकृत- दीपिका ( चण्डीदेव शर्मा ) प्राकृतकल्पलतिका ( ऋषिकेश ) यदि प्रमुख हैं । इनका प्रकाशन अधुनातम वैज्ञानिक पद्धति से हो चुका है तथा देश-विदेश के विश्व विद्यालयों में पाठ्य-ग्रन्थों के रूप में स्वीकृत हैं ।
प्राकृत वैयाकरणों ने स्थान एवं काल भेद के कारण प्राकृतों के अर्धमागधी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची,
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भूमिका आचार्य रुद्रट कृत काव्यालंकार के सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य नमिसाधु ने 'प्राकृत, शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है :-प्राक् पूर्व कृतं प्राकृतम् (२/१२ टीका) अर्थात् 'पहले किया गया। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि 'प्राकृत' वह भाषा है, जो, मानव-सृष्टि के प्रारम्भिक काल से व्याकरण आदि संस्कारों से रहित होने पर भी स्वाभाविक रूप से सामान्य जनता के विचारों के आदान-प्रदान का स्वाभाविक माध्यम रहती आई हो। इसी लिए 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति में 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम् “तथा" प्रकृतीनां साधारण जनानामिदं प्राकृतम्" कह कर जन-सामान्य की स्वाभाविक भाषा को 'प्राकृत' कहा गया।
प्राकृत की उक्त व्युत्पत्तियों तथा अन्य भाषा-वैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह भी सिद्ध हो गया है कि वेदों में प्रयुक्त छान्दस्-भाषा से “लौकिक संस्कृत का विकास हुआ तथा वैदिककालीन ही प्राच्या या पूर्वदेशीया भाषा से जो 'भाषा' विकसित हुई, वह 'प्राकृत' कहलाई। इस दृष्टि से उक्त संस्कृत एवं प्राकृत : भाषाओं के विकास का स्रोत एक ही है अर्थात् दोनों सगी बहनें हैं। दोनों में अन्तर केवल यही है कि छान्दस् से विकसित भाषा के रूप को चूकि महर्षि पाणिनि ने व्याकरण के नियमों में बाँध दिया. अतः संस्कार हो जाने से वह संस्कृत कहलाई, जब कि प्राकृत का स्वाभाविक अर्थात् जनभाषा ( प्राकृत ) का ही रूप बना रहा, यद्यपि उसमें देश, काल एवं परिस्थितियों के कारण नाना प्रकार के परिवर्तन अवश्य होते रहे।
प्राकृत-भाषा जन-सामान्य की लोकप्रिय एवं स्वाभाविक बोल-चाल की भाषा होने के कारण ही बिहार के महान् सपूत लोकनायक महावीर, बुद्ध, सम्राट अशोक एवं कलिंग सम्राट
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खारबेल ने अपने लोक मंगलकारी सर्वोदयी आदर्श विचारों एवं आज्ञाओं का प्रचार-प्रसार प्राकृत-भाषा में किया।
प्राकृत के जनभाषाई रूप एवं लोकप्रियता के कारण संस्कृत के प्रायः सभी नांटककारों-शूद्रक, भास, कालिदास आदि ने भी अपने संस्कृत-नाटकों में उसे सम्मानित स्थान प्रदान किया।
- प्राकृत के व्याकरण सम्बन्धी सिद्धान्तों की कुछ चर्चा प्राचीन आगम-ग्रन्थों में मिलती है। उनमें प्राकृत-व्याकरण के अनेक ग्रन्थों की चर्चा भी आई है। कहा जाता है कि प्राकृतलक्षण (महर्षि पाणिनि), ऐन्द्र व्याकरण(इन्द्र), सद्द-पाहुड (अज्ञात) प्राकृत-व्याकरण ( समन्तभद्र), स्वयम्भू-व्याकरण ( स्वयम्भू ) प्राकृत-साहित्य-रत्नाकर (अज्ञात ) आदि में अपने-अपने ढंग से प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी नियम लिखे गए थे किन्तु आज वे ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं उनमें प्राकृत-लक्षण (चण्ड) प्राकृत-प्रकाश ( वररुचि ) प्राकृत-प्रकाश को मनोरमा टीका (भामह) प्राकृत-मंजरी (कात्यायन), प्राकृत संजीवनी (वसन्तराज), सुबोधिनी (सदानन्द), सिद्धहेमशब्दानुशासन (प्राचार्य हेमचन्द) प्राकृतानुशासन ( पुरुषोत्तम ), प्राकृतशब्दानुशासन (त्रिविक्रम) षड्भाषा-चन्द्रिका ( लक्ष्मीधर) प्राकृतरूपावतार (सिंहराज ) प्राकृतकल्पतरु ( रामशर्मातर्कवागीश, प्राकृतकामधेनु (लंकेश्वर) प्राकृत-चन्द्रिका (शेषकृष्ण) प्राकृतानन्द. ( रघुनाथकवि) प्राकृत-दीपिका ( चण्डीदेव शर्मा) प्राकृतकल्पलतिका (ऋषिकेश)
आदि प्रमुख हैं। इनका प्रकाशन अधुनातम वैज्ञानिक पद्धति से हो चुका है तथा देश-विदेश के विश्व विद्यालयों में पाठ्य-ग्रन्थों के रूप में स्वीकृत हैं।
प्राकृत-वैयाकरणों ने स्थान एवं काल-भेद के कारण प्राकृतों के अर्धमागधी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची,
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शाकारी, ढक्की, चाण्डाली, आभीरी एवं अपभ्रश जैसे अनेक भेद किए हैं तथा भाषा-वैज्ञानिकों ने आधुनिक भारतीय-भाषाओं की उसे जननी कहा है। बिहार की मगही, मैथिली एवं भोजपुरी भाषाओं का भी इन्हीं प्राकृतों से जन्म माना गया है।
जर्मन, अंग्रेजी, गुजराती एवं हिन्दी में भी आधुनिक शैली में प्राकृत-व्याकरण के अनेक ग्रन्थ लिखें गए हैं किन्तु विषय की गम्भीरता, नियमों की बहुलता, ग्रन्थों की विशालता एवं उनकी कीमतों की अधिकता के कारण प्रारम्भिक कक्षाओं के छात्र-छात्राओं तथा सामान्य जिज्ञासु पाठकों की पहुंच से दूर होने के कारण वे केवल विद्वद्भोग्य ही बन सके, सर्वभोग्य नहीं बन पाए। इस कारण प्रारम्भिक छात्रों के सम्मुख बड़ी कठिनाईयाँ
आती रही हैं। इसीलिए उस रिक्तता की पूर्ति हेतु अपने सहयोगी प्राध्यापकों एवं साहित्य-प्रेमी बन्धुओं की प्रेरणा से प्रस्तुत लघुपुस्तिका को तैयार किया गया है। इसमें प्राकृत के प्रारम्भिक छात्रों को ध्यान में रखकर ही केवल प्रारम्भिक, उपयोगी तथा आवश्यक विषयों तथा नियमों पर प्रकाश डाला गया है ।
विश्वास हैं कि यह प्रयास प्राकृत के जिज्ञासुओं के ज्ञानसंबर्द्धन में सहायक होगा! इसे कम समय में तैयार करना पड़ा है और स्थानीय प्रेस में ही मुद्रित कराया गया है। सावधानी बरतने पर भी उसमें अनेक त्रुटियों और अशुद्धियों की सम्भावना है। इनके लिए मैं सादर क्षमायाचना करते हुए विद्वान् पाठकों से उनकी सूचना एवं सुझाव आमन्त्रित करता हूँ, जिससे कि अगले संस्करण में उनका सदुपयोग किया जा सके। दिनांक २१-१-१९६० महाजन टोली नं० २, पारा
-राजाराम जैन (बिहार)
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पहला पाठ वर्णमाला (Alphabet)
किसी भी भाषा की मूल ध्वनियों तथा उनकी प्रकृतियों या चिन्हों को वर्णं कहते हैं और किसी भी शब्द - गठन या पदसंरचना के लिए ये वर्ण-चिन्ह अनिवार्य माने गए हैं । इन वर्णो को दो भागों में विभाजित किया गया है ।
Somed
क. स्वर-वर्ण
इसके अन्तर्गत वे वर्णं प्राते हैं, जिनके उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की अपेक्षा नहीं होती । प्राकृत-व्याकरण के अनुसार प्राकृत के स्वर वर्ण निम्न प्रकार हैं
--
(१) ह्रस्व स्वर - प्र. इ. उ.
(२) दीर्घ स्वर प्र. ई. ऊ. ए. प्रो.
ध्यातव्य -
प्राकृत भाषा में ऋ, ऐ, औौ एवं अः स्वर वर्ण नहीं पाए. जाते । ख. व्यञ्जन वर्ण
प्राकृत - व्याकरण के नियमानुसार व्यञ्जन वर्ण वे हैं, जिनके उच्चारण में स्वर-वर्णों की सहायता अपेक्षित हो । ये व्यञ्जन वर्ण निम्न प्रकार हैं :
क वर्ग - क. ख् ग् घ्. च - वर्ग - च. छ. ज्. झु. ट-वर्ग-द. ठ् ड् ढ् ण. ( मूर्धन्य )
( कण्ठ्य) (तालव्य)
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( २ )
त-वर्ग - त् थ् द् ध् न्. ( दन्त्य ) पं वर्ग - प् फ् ब् भ् म्. ( श्रोष्ठ्य)
-
य्.
र् ल्. व्. ( श्रन्तस्थ )
स्, ह, (ऊष्म) (अनुस्वार)
* (अनुनासिक) एवं
-
ध्यातव्य
(अ) प्राकृत भाषा में विसर्ग ( : ) स्थान में "ओ" स्वर हो जाता है । जैसेरामः- रामो । सः - सो ।
नहीं होता । उसके
(प्रा) सामान्य प्राकृत में 'ङ' एवं 'न का प्रयोग नहीं होता । उनके स्थान पर अनुस्वार ( 2 ) का प्रयोग होता है । जैसे
अङ्क – अंक, । पञ्च - पंच |
(इ) शौरसेनी एवं मागधी प्राकृत को छोड़कर सर्वत्र श्, ष् एवं स् के स्थान में 'स्' का प्रयोग होता है। जैसे— विशेष :- विसेसो; हरिवंश :- हरिवंसो; एषणा - एसणा, आदि ।
दूसरा पाठ
प्राकृत भाषा के सामान्य नियम
ध्वनि परिवर्तन ( वर्ण-विकार) के सामान्य नियम
प्राकृत व्याकरण के अनुसार इसे दो भागों में विभाजित किया जाता है । ..
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१. स्वर-स्वनि-परिवर्तन- . . (१) आचार्य हेमचन्द्र द्वारा लिखित प्राकृत -व्याकरण के
नियमानुसार प्राकृत-भाषा में ऋ, ऐ, औ, तथा अः को छोड़ कर शेष स्वर वही होते हैं, जो कि संस्कृत में। प्राकृत-भाषा में ऋ के स्थान पर रि, अ, इ तथा उ वर्णों का प्रयोग होता है। जैसेऋ = रि - ऋषिः . = रिसि, अ - मृतः = मनो, मियो
मृग. = मियो, मित्रो, मो.
ऋतु: = उउ, = अइ - कैलाशः = कइलासो,
, = केलासो
रौरवः = रउरवो, , , - गौरवः = गउरवो " , - कौरवः = कउरवो
, ओ – यौवनम् = जोव्वणं, (२) कहीं-कहीं शब्द के प्रारम्भ में ह्रस्व 'अ' का लोप हो जाता है । जैसे -
अरण्यम् = रण्णं । इदानीम् = दाणिं (३) ह्रस्व-स्वर, दीर्घ-स्वरों में बदल जाता है। जैसे
दुश्शासनः = दूसासणो। पश्यति = पस्सइ प्रश्वः . = प्रासो। . वर्षः = वासो सिंहः = सीहो। प्रकटः = पायडो विश्रामः = वीसामो.
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(
४ )
(४) दी-स्वर, ह्रस्व-स्वर में बदल जाता है। जैसे -
. चूर्णः = चुण्णो। पतिगृहं = पईहरं . आम्र = अम्बं। नीलोत्पलम् = नीलुप्पलं व्यञ्जन-परिवर्तन-- प्राकृत-भाषा में शब्द के प्रारम्भ में आने वाले न, य, श और ष को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जनों में सामान्यतया कोई परिवर्तन नहीं होता। उक्त 'न' आदि चार व्यञ्जनों में निम्न प्रकार परिवर्तन हो जाता है। यथा :---
न =ण -- नगरं = णयरं। नदी = णइ ,,,, - नरः = णरो। यमुना =जउणा.
ज - यशः = जशो। यतिः = जई
श=स - शब्दः = सद्दो। श्यामा = सामा ... ष=स - षड्जः = सज्जो। षण्ढः = संढो (१) शब्द के मध्य अथवा अन्तमें रहने वाले स्वर से परे
तथा अन्य किसी व्यञ्जन से संयोग रहित क्. ग. च्. ज्. त्. द्, प् . य, व, का प्रायः लोप हो जाता है, किन्तु, उनके स्वर शेष बचे रह जाते हैं तथा लुप्त व्यञ्जन के अवशिष्ट 'अ' स्वर के स्थान पर कहीं-कहीं य-श्रुति होती है। जैसे :
क-सुखकरः = सहयरो-सुहअरो। . सकल:- सयलो-सअलो ग-नगरम् =णय रं-णपरं। । सागरः = सायरो-साअरो
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च-सहचरः = सहय रो, सहअरो। " वाचणा=वायणा, वारणा , वचनं = वयणं, वअणं ज-पूजा =पूया, पूमा। ... ,, भुजा = भुया, भुना। राजा-रायो, राम्रो। त-पिता=पिया, पिया।
माता-माया, माया द-भेदः=भेयो, भयो।
कदम्बः = कयंबो, कबो मदनः-मयणो, मप्रणो प-रिपुः =रिऊ। विपुलम्-विऊलं, य-प्रयोजनम् = पयोयणं, पोअणं । वायु-वाऊ, व-प्रावृषः = पाउसो (वर्षाऋतु)।
दिवसः =दियहों ,दिअहो अपवादयहाँ 'प्राय': शब्द वैकल्पिक हैं अर्थात् कहीं-कहीं लोप नहीं होता। जैसे :
सुकुसुमं =सुकुसुमं; पियगमणं =पियगमणं; सचावं = सचावं, विजणं = विजणं,
अतुलं = अतुलं, आदरो= आदरो आदि । इसी प्रकार संग मो, अक्को, कालो, आदि में भी उक्त
नियम लागू नहीं होता। (२) मा एवं उ स्वरों के बाद आने वाले 'प, का 'व' हो जाता है। जैसे
पापं = पावं। उपाय: = उवायो। उपहासः = उवहासो।
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(३) प्राकृत भाषा में स्वर से परे असंयुक्त तथा अनादि
अर्थात् शब्दों के मध्य अथवा अन्त में आने वाले ख, घ्, थ्, फ्, एवं भ के स्थान में 'ह, हो जाता है । जैसेख-नखम् =णहं। मुखम् =मुहं । . .
सखी=सही। विशाखा=विसाहा । ' लेखः = लेहो। मेखला=मेहलो घ-मेघः =मेहो। लघुः =लहू थ्-तथा =तहा। यथा =जहा - नाथः =णाहो। कथा = कहा. धू-वधिरः =बहिरो। साधुः =साहू
मधु =महु। मगधं=मगहं. भ्-प्रभा=पहा। सभा =सहा ।
प्राभरणम् = आहरणं। अपवादनिम्नलिखित शब्दों में यह नियम लागू नहीं होतासंखो (शंखः), संघो (संघ,) कथा (कथा) गज्जतो
(गर्जयन्) अधीरो (अधीरः) अधण्णो(अधन्यः) आदि. . (४) स्वर से परे असंयुक्त एवं अनादि ट, ठ, ड्, न् एवं 'ब् के स्थान में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं । जैसे :
ट् =ड-भटः = भडो (योद्धा, लड़ाकू)। घट:=घडो . ठ् =ढ-कमठः =कमढो। पठति पढाइ इल-गरुडः=गरुलो। तडागः तलागो न् =ण-वदनम् == वयणं । वनम् = वणं ।
नगरम् =णयरं ब्व-सबलः = सवलो। निर्बल:=निव्वलो।
.
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अपवादयह नियम निम्न शब्दों पर लागू नहीं होता-घंटा, वैकुंठो (वैकुण्ठः), मोंडं (मुण्डम्) खट्टा, चिट्ठइ, ठाइ
(स्थायी), अटइ (अटंति), (५) मध्य अथवा अन्त्यवर्ती 'श' एवं 'ष' के स्थान में 'स' हो जाता है। जैसे
विशेषः = विसेसो। देश: =देसो
कषायः = कसाओ। पुरुषः=पुरिसो सयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन: प्राकृत-भाषा में विजातीय संयुक्त-व्यंजनों के स्थान में सजातीय संयुक्त-व्यञ्जन हो जाता है। (क) विजातीय संयुक्त-व्यंजन
वह कहलाता है, जिसमें भिन्न-भिन्न वर्गों के विविध वर्णों के मेल से शब्द बनता है। जैसे :
कष्ट, विद्या, कक्षा, पात्र। यहाँ कष्ट में ''-ऊष्म वर्ण है एवं 'ट' टवर्ग का वर्ण है। विद्या में 'द्'-तवर्ग का है एवं 'य' अन्तस्थ वर्ण का है। कक्षा (क् + + आ =क्षा) में 'क'-कवर्ग का एवं'ष' -ऊष्म वर्ण का है। पात्र में 'त्र'-तवर्ग का एवं 'र'-अन्तस्थ
वर्ण का है। (ख) सजातीय संयुक्त-व्यंजन:
वह है, जिसमें एक ही वर्ग के वर्गों के मिलने से शब्द अथवा पद का गठन हो। यहाँ विशेष स्पष्टीकरण हेतु विजातीय एवं संयुक्त व्यंजनों के तुलनात्मक
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।
उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं :
विजातीय रूप- सजातीय रूप विद्या-(द् +य्+आ) - विज्जा। अवद्यम् (द्=य् +अ) - अवज्ज । । कष्ट:-(ष् + ट्) - कट्ठो नष्ट:--(+ट्) - नट्ठो कक्षा-(क् ++पा=क्षा) कक्खा पात्रः-(त् । र् +अ) - पत्तो छात्रः-(त् + र् : अ) - छत्तो
अद्य:-(द् +य्) . - अज्जो (१) संज्ञा की प्रतीति कराने वाले शब्दों में 'क', 'स्क . एवं 'क्ष' के स्थान में 'ख' हो जाता है। जैसे
पुष्करम्-पोखरं अथवा पोक्खरं (तालाब) निष्कम्-निक्ख (प्राचीन सिक्का) स्कन्धः-खंधो (कन्धा)
स्कन्धावार:--खंधावारो। क्षत्रिय:-खत्तिो (२) 'इच', 'त्स' एवं 'प्स' के स्थान में 'च्छ' हो जाता है। जैसे :
आश्चर्यम् = अच्छरियं, अच्छ रं । उत्साहः = उच्छाहो।
अप्सरा = अच्छरा। लिप्सति = लिच्छइ । (३) 'ष्ट' के स्थान में 'टु' हो जाता है। जैसे--
अष्टम =अट्र। कष्टं = कटू. नष्ट: = नट्ठो। यष्टि: = लट्ठी.. इष्टः = इट्ठो। पुष्ट:=पुट्टो.
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(४) समस्त एवं स्तम्भ शब्दों को छोड़कर अन्य शब्दों के 'स्त के स्थान में 'त्थ अथवा 'च्छ हो जाता है। जैसे
प्रशस्तः =पसत्थो। प्रस्तरः-पत्थरो (पत्थर) मत्सरः = मच्छरो। वत्सः=वच्छो
हस्तः = हत्थो। स्तोत्रम् =थोत्तं । (५) 'प', 'स्प' के स्थान में 'फ' अथवा 'फ' हो जाता हैं। जैसे :
पुष्पम् = पुप्फ । स्पर्शः = फंसो। स्पंदनं = फंदणं (६) 'थ्य' के स्थान में ‘च्छ हो जाता है । जैसे :
पथ्यम् = पच्छ । मिथ्या=मिच्छा। ... (७) 'ज्ञ' के स्थान में 'ण' अथवा ण हो जाता है। जैसे- .
प्रज्ञा=पण्णा । सर्वज्ञः = सव्वण्णू संज्ञा =सण्णा ।
आज्ञा=आणा। ज्ञानम् =णाणं । विज्ञानम् =
“विण्णाणं । .. (८) 'ध्य' के स्थान में 'झ'। यथा
ध्यानम् = झाणं। उपाध्यायः उवज्झायो.
मध्यम् =मज्झं । विन्ध्यः=विज्झो. (6) 'म्न' के स्थान में 'पण' । यथा-..
प्रद्य म्नः=पज्जुण्णो । निम्नम् =निण्णं. (१०) 'क्ष' के स्थान में 'ख', क्ख 'छ' एवं 'झ' होते हैं। जैसे :
क्षयः खयो। लक्षणम् =लक्खणं . क्षमा=खमा। क्षीणम् = खीणं, झीणं क्षुधा-छुहा, खुहा.
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(११) संयुक्त 'य्य', 'य', 'ध' के स्थान में 'ज्ज' होता है। जैसे:
- शय्यासेज्जा। कार्यम् =कज्जं
पर्यन्तम् = पज्जतं। आर्या=अज्जा भार्या भज्जा। मद्यम् =मज्ज।
विद्या=विज्जा। उद्यानम् =उज्जाणं (१२) 'इन', 'ण', 'स्न', 'ह', 'ह' 'क्षण के स्थान में ‘ण्ह' हो जाता है जैसे :
प्रश्नःपण्हो । कृष्णः कण्हो। उष्णः=उण्हो स्नानम् =ण्हाणं । ज्योत्स्ना=जोहा । वह्निः-वही। स्नायु:=ण्हाऊ । पूर्वाह्नम् = पुव्वण्हो। अपराह्नः-अवरोहो ।
तीक्ष्णम् = तिण्हें । (१३) 'प' के स्थान में 'ह' होता है। जैसे :
कार्षापणः=काहावणो (१४) 'त्म' के स्थान में 'प्प' हो जाता है। जैसे :
__आत्मा=अप्पा (१५) 'है', 'श', 'ब', 'य' की रेफ के स्थान में 'रि' हो जाता है। जैसे :-
.. गर्हा=गरिहा । प्रादर्शः-आयरिसो दर्शनम् = दरिसणं। वर्षम् =वरिसं
आचार्य:=पायरियो। सूर्यः =सूरिओ • अन्य आवश्यक नियम (१६) प्राकृत-भाषा में हलन्त शब्द का प्रयोग नहीं होता है ।
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( ११ )
जैसे :-संयुक्त 'न्म' के स्थान में 'म्म'। यथा- ...
जन्मः जम्मो। मन्मथः मम्महो। (१७) संयुक्त श्म, ष्म, स्म एवं ह्म के स्थान में 'म्ह' । यथा
काश्मीरः=कम्हारो। ग्रीष्मः=गिम्हो । अस्माहशः प्रम्हारिसो। *
ब्रह्मा=बम्हा। ब्राह्मणः=बम्हणो। (१८) शील (स्वभाव, आदत) धर्म (गुण) एवं साधु (निपुण)
अर्थ में जो प्रत्यय आते हैं, उनके स्थान में 'इर' आदेश होता है।
हसणशीलः=ह सिरो। लज्जाशीलः लज्जिरो।
भ्रमणशीलः= भमिरो। (१६) 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान में तुम्, अत्, तूण एवं तुप्राण - आदेश होते हैं। यथा
क्त्वा तुम्-दग्ध्वा-दद्ध; मुक्त्वा = मोत्त क्त्वा = अत्-भ्रमित्वा-भमित्र । क्त्वा-तूण-ग्रहीत्वा-घेत्त ण । कृत्वा-काऊण
क्त्वा तुआण-भुक्त्वा-भोत्त प्राण. . .. (२०) मतुप् प्रत्यय के स्थान में पालु, इल्ल, उल्ल, पाल, वंत,
मंत एवं इत्त आदेश होते हैं। यथा :
ईर्ष्यावान् = ईसालु । निद्रावान् =णिद्दालु शोभावान् =सोहिल्लो। विकारवान् =विभारिल्लो। विकारवान् = विप्रारुल्लो । . रसवान् = रसालो । ज्योत्स्नावान् =जोण्हालो ।
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( १२)
धनवान् =धणवंतो। पुण्यवान्=पुण्णवंतो। मानवान् =माणवतो.
धर्मन् =धम्मं । नष्टम् =णटुं । दीपम् = दीवं (२१) प्राकृत-भाषा में शब्द के प्रारम्भ में प्रायः संयुक्त
व्यंजनों के प्रयोग नहीं मिलते। जैसे :
स्वभावः=सहावो। स्नेहः=णेहो। न्यायः=णायो
ग्रामः=गामो। दारंवारं, दारं । स्वरः सरो (२२) स्वर-भक्ति-व्यंजन को किसी स्वर से विभाजित
करके जब उसे स्वरयुक्त व्यंजन बना दिया जाय: तव इस प्रक्रिया को स्वर-भक्ति कहते हैं। जैसे :
क्रिया=किरिया। वर्षः =वरिसो। . . . हर्षः-हरिसो। स्नेहः=सिणेहो। .
प्राचार्यः=पायरियो। श्लोकः=सिलोरो। (२३) प्राकृत-भाषा में द्विवचन का प्रयोग नहीं होता। केवल
एक वचन एवं बहु वचन का ही प्रयोग किया जाता । द्विवचन को बहु वचन के अन्तर्गत ही मान लिया
गया है। (२४)
प्राकृत-व्याकरण के नियमानुसार प्राकृत-भाषा में केवल छह विभक्तियाँ ही होती हैं। क्योंकि उसमें चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति एक समान होती है। अतः उन्हें इस प्रकार बताया गया है-प्रथमा, द्वितीया, तृतीया,
चतुर्थी एवं षष्ठी, पंचमी एवं सप्तमी। (२५) प्राकृत में लिंग तीन प्रकार के पाए जाते हैं।
(क). पुल्लिंग (ख) स्त्रीलिंग (ग) नपुंसक-लिंग।
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सरलीकरण की प्रवृति के कारण नपुंसक-लिंग की संज्ञाएं प्रायः पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग में मिश्रित मिलती हैं। पुल्लिंग-संज्ञाए अकारान्त, इकारान्त
और उकारान्त मिलती हैं तथा स्त्रीलिंग की संज्ञाएं अकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त एवं । ऊकारान्त मिलती हैं।
तीसरा पाठ
सन्धियाँ सन्धि एवं संयोग की परिभाषा:दो वर्णों के मेल से उत्पन्न होने वाले वर्ण-विकार को सन्धि कहते हैं तथा दो वर्गों के बिना विकृति के ही मिल जाने को संयोग कहते हैं। प्राकृत में सन्धि की व्यवस्था वैकल्पिक मिलती है, ' नित्य नहीं। जैसे-दधीश्वरः शब्द को सन्धि होकर दहीसरो रूप भी मिलता है तथा दहि-ईसरो भी। सन्धि-भेद :-प्राकृत-व्याकरण के अनुसार सन्धियाँ तीन प्रकार की हैं :-१. स्वर-सन्धि २. व्यंजन
सन्धि, एवं ३. अव्यय-सन्धि विशेष :-प्राकृत में विसर्ग का प्रयोग नहीं होता।
अतः उसमें विसर्ग सन्धि नहीं होती। (१) स्वर-सन्धि :--दो अत्यन्त निकट स्वरों के मिलने से
ध्वनि में जो वर्ण-विकार उत्पन्न होता है, उसे
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( १४ )
स्वर - सन्धि कहते हैं । इसे अच्- सन्धि अथवा सवर्णस्वर - सन्धि भी कहते हैं । इस सन्धि के ४ भेद हैं :(i) दीर्घ स्वर - सन्धि :
उसे कहते हैं, जिसमें ह्रस्व या दीर्घ श्र. इ और उ स्वर से यदि उनका स्व-सवर्ण स्वर परे (अर्थात् बाद में) रहे, तो दोनों के स्थान में विकल्प से सवर्ण - दीर्घ होता है । जैसे :
(क) अ + अ = आगर + अहिवा = णराहिवा, परअहिवा, ( नराधिपः )
दंड + ग्रहीसो = दंडाहीसो, दंड = श्रहीसो,
( दण्डाधीशः )
अ + आ = आ + प्रांगनी = णागओ, ण - आगो - ( नागतः ) ण + आलवइ = णालवइ, ण - प्रलवइ ( नालपति ) आ + अ = श्रा - रमा + प्रहीणी = रमाहीणो, रमा प्रहीणो ( रमाधीनः )
आ + आ = - रमा + आरामो = रमारामो, रमा आरामो (ख) इ + इ = ई मुणि + इणो मुणीणो, मुणि- इणो ( मुनीनः ) इ + ई = ई मुणि + ईसरो = मुणीसरो, मुणि - इसरो ( मुनीश्वरः )
ई + इ = ई-गामणी + इइहासो = गामणी इहासो, गामणी इइहासो
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ई-ई पुहवी+ ईसो पुहवीसो, पुहवी ईसो .
(पृथिवीशः) उ+उऊ-भाणु+उवज्झानो= भाणूवज्झाओ, भाणु उवज्झायो(भानूपाध्यायः) उ+ऊ=ऊ-साहु +ऊसवो साहूसवो
(साधूत्सवः) साहु ऊसवो ऊ+3=ऊ-बहू + उअरंवहूअरं, वहू उपर
(वधूदरं) ऊ+ऊ=उ-कणेरू +ऊसिग्रंकणेरूसिय,
कणेरू ऊसिध (ii) गुण-स्वर-सन्धि :
इस सन्धि को असवर्ण स्वर-सन्धि भी कहते हैं। इसमें अ और प्रा के बाद प्रसवर्ण ह्रस्व अथवा दीर्घ ई और ऊ हो, तो दोनों के स्थान में क्रमशः ए और प्रो गुणादेश हो जाता है। यह नियम वैकल्पिक है अर्थात् कहीं गुणादेश होता है और कहीं-कहीं नहीं भी
होता है। जैसे :(क) अ+इ=ए-वास + इसीवासेसी, वासइसी
। (व्यासऋषि) प्रा+इ=ए-रामा + इयरो= रामेअरो, रामा इअरो
(रामेतरः) +ई-ए-दिण+ईसो दिणेसो, दिण ईसो
(दिनेशः)
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.
आ+ईए-जाया + ईसो जायेसो, जायाईसो
(जायेशः) अ - उ=ो गूढ + उग्ररंगूढोअरं, गूढ उअरं
(गूढोदरम्) आ+उप्रो -रमा + उवचिअं= रमोवचिग्रं,
रमा-उवचिग्रं अ+ऊ=ो-सास+ऊसासा =सासोसासा,
सास-उसासा (श्वासोच्छ्वासा) या+ऊ=ो-विज्जुला-+ ऊसु भिअं=
विज्जुलोसुभिनं, विज्जुला-ऊसु भिअं इसी प्रकार :अ+एए ण+एव=णएव ( नैव ) आ+ए=ए तहा--एव तहेव ( तथैव ) अ+ो=ो जल ---अोहो=जलोहो ( जलौघः) आ+ओ=ो पहा+ोलि=पहोलि (प्रभावली: ) ह्रस्व-दीर्घ स्वर-सन्धि :प्राकृत-व्याकरण के नियमानुसार प्राकृत के सामासिक पदों में विकल्प से ह्रस्व-स्वरों का दीर्घ एवं दीर्घ
स्वरों का ह्रस्व हो जाता है। जैसे :(क) ह्रस्व-स्वर का दीर्घ-अंत+वेई=अंतावेई, अंतवेई.
सत्त+वीसा=सत्तावीसा; सत्तवीसा..
पइ+हरंपईहरं; पइहरं. (स) दीर्घ-स्वर का ह्रस्व-मणा+सिलामणसिला;
मणासिला.
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( १७ ) , णई+सोत्त=णइसोत्तं; णईसोत्तं. ... गोरी+हरंगोरिहरं; गोरीहरं.
जऊँडा+यडं=जऊँणयडं; जणायडं. (iv) प्रकृतिभाव अथवा सन्धि-निषेध स्वर-सन्धि :
सन्धि का निषेध होना अर्थात् सन्धि का नहीं होना ही प्रकृतिभाव कहलाता है। इसमें दो स्वरों का मेल नहीं होता। यह प्रकृतिभाव संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत
में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। उदाहरणार्थ :-- (क) इ एवं उ की विजातीय-स्वर के साथ सन्धि नहीं होती । जेसे :
इ+अपहावलि+अरुणोपहावलि अरुणो. . वि+अविन। जाइ + अंधोजाइ अंधो
उ+अ-बहु +अवऊढो=बहु-अवऊढो (ख) ए और प्रो के प्रागे यदि कोई स्वर-वर्ण हो तो उनमें
सन्धि नहीं होती। जैसे :-- ए+अ-वणे --अडइवणे अडइ... प्रो+प्रा-रुक्खादो+आप्रो= रुक्खादो प्राअो. ओ+ए-एग्रो+एत्थ =एप्रो-एत्थ.
ओ+अ-अहो+अच्छरिअं=अहो अच्छरिअं (ग) उद्वत्त स्वर की किसी भी स्वर के साथ सन्धि नहीं
होती। जैसे :निसा+अरो-निसारो (निशाचरः) गंध + उडिगंधउडि (गन्धकुटिम्) रयणी+अरोरयणीअरो (रजनीकरः)
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( १८ ) (घ) स्वर-वर्ण के परे रहने पर उसके पहले के स्वर का विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे :- .
राम+उलंराउलं राअउलं ( राजकुलम् ), नीसास-+-ऊसासा=नीसासूसासा, नीसासऊसासा. नर+इदोनरिंदो, नरइदो (नरेन्द्र:).
महा+इदो महिंदो, महाइ दो . उक्त उदाहरणों में सर्वत्र विजातीय स्वरों में पारस्परिक सन्धि न होने से प्रकृति-भाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है, किन्तु कहीं-कहीं अपवाद भी पाए जाते हैं और सन्धि के वैकल्पिक अथवा नित्य रूप भी मिलते हैं। जैसे :(क) वैकल्पिक सन्धि :
अना =कुभ+आरो=कुभारो; कुभनारो. लोह+आरो=लोहारो; लोहारो. अ+ईतियस+ईसोतियसीसो; तियसईसो.
उ+उसु + उरिसो=सूरिसो;सुउरिसो. (ख) नित्य सन्धि :
. अ+प्रा=चक्क+प्रारो-चक्काओ (चक्रवाकः).
साल+पाहणो=सालाहणो। (२) व्यञ्जन-सन्धि :
व्यञ्जन-वर्ण के साथ व्यञ्जन अथवा स्वर के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे व्यञ्जन-सन्धि कहते हैं। जैसे धनं+एव धणमेव । किन्तु प्राकृत के वैयाकरणों ने व्यजंन-सन्धि का विशेष विचार नहीं किया। क्योंकि प्राकृत में प्रायः व्यञ्जनों में सन्धि नहीं होती।
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( १६ )
व्यजनों का लोप होने पर जो स्वर शेष रह जाते हैं, उनमें स्वर-सन्धि के समान ही सन्धि-कार्य होता है। फिर भी, उसके कुछ नियम इस प्रकार बतलाए । गए हैं :
ह्रस्व 'अ' के बाद आए हुए विसर्ग के स्थान में उस पूर्व ___ के 'अ' के साथ 'यो हो जाता है। जैसे :
अग्रतः=अग्गो। पुरतः=पुरो । भवतः=भवनो। ख) शब्द या पद के अन्त में रहने वाले 'म' के स्थान में अनुस्वार हो जाता है। जैसे :
देवम् =देवं । गिरिम् =गिरि. (ग) 'म' के बाद में आने वाले स्वर के रहने पर उस 'म' के स्थान पर विकल्प से अनुस्वार हो जाता है। जैसे:
यम् +पाहु=यमाहु, यं आहु; धनम् + एव=धणमेव; धणं एव
। (घ) जहाँ आदि-स्वर वाले दो पद एक साथ आवें, वहाँ उन दोनों पदों के मध्य में विकल्प से 'म्' हो जाता है । जैसेः
एक्क+एक्क=एक्कमेक्कं; एक्केक्कं ।
एक्क+एक्केण=एक्कमेक्केण; एक्केक्केण । (च) शब्द या पद के बीच में आने वाले ड्, अ ण, एवं न के स्थान में अनुस्वार हो जाता है। जैसे :
पराङ मुखः परंमुहो। कञ्चुकः=कंचुप्रो.
षण्मुखः=छमुहो। प्रारम्भःप्रारंभो, अपवाद :कहीं कहीं अन्त्यवर्ती व्यञ्जन का लोप न होकर परवर्ती
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।
२०
)
स्वर के साथ उसकी सन्धि हो जाती है। जैसे :
किम् + इहं=किमिहं। पुनर् + अपि-पुणरवि । प्राकृत-व्याकरण के नियमानुसार प्रायः अनुस्वार का लोप भी हो जाता है। जैसे :- संस्कारः=सक्कारो। संस्कृतं सक्कयं ।
विसति=वीसा। त्रिंशत्=तीसा। (ज) कहीं कहीं प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय वर्ण पर अनुस्वार
का आगम हो जाता है। जैसे :--
वक्रम् =बंकं । दर्शनम् =दसणं । इह=इहं। मनस्वी=मणंसी।
उपरि=उरि। सम्मुखमसम्मुहं । (झ) क्त्वा प्रत्यय के प्राकृत के तूण, तुप्राण, ऊण एवं उप्राण के 'ण' पर अनुस्वार हो जाता है। जैसे :
काउण=काऊणं । काउपाण=काउआणं । इसी प्रकार तृतीया एकवचन, षष्ठी बहुवचन के 'ण' पर तथा सप्तमी बहुवचन के 'सु' पर भी अनुस्वार हो जाता है। जैसे :- .
तेण तेणं। कालेण=कालेणं ।
वच्छेसु=वच्छेसु। (३) अव्यय सन्धि : -.
अव्यय-पदों में परस्पर में सन्धि हो जाने को अव्ययसन्धि कहते हैं। यद्यपि यह सन्धि भी स्वर-सन्धि के अन्तर्गत आती है तथापि अव्यय-सन्धि के विषय में कुछ विशेष विचार करने की दृष्टि से यहाँ कुछ नियमों का विवेचन किया जा रहा है :
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( २१ )
(अ) पूर्व - पद के बाद आए हुए स्वर का विकल्प से लोप हो
:--
जाता है तथा 'प' के स्थान में 'व' हो जाता है । जैसे : केन + अपि = केणवि; केणावि. को + अपि = कोवि; को अवि.
तम् + अपि = तंवि; तमवि. किम् + अपि = किवि; किमंदि.
(प्रा) अन्तिम पद के आद्य 'इ' का विकल्प से लोप तथा पद के अन्तके 'त' का द्वित्व हो जाता है । जैसे :दीसइ + इति = दीसइत्ति; दीसइ इति. तहा + इति = तहत्ति, तहा इति
जइ + इमा = जइमा; जइ इमा.
(इ) यदि 'इति' शब्द अव्यय-पद के प्रारम्भ में आवे तो उसके स्थान में 'इन' होगा | जैसे :इति विन्ध्यगुफामध्ये = इन विज्झगुहामज्झे
का प्रयोग हो तो उसके जैसे गेहं + इव गेहूं व. -
(ई) यदि अनुस्वार के बाद 'इव' स्थान में 'व' हो जाता है। ( उ ) यदि स्वर के बाद 'इव' का प्रयोग हो तब उसके स्थान में 'व्व' हो जाता है । जैसे- चंदो इव= चंदो व्व.
चौथा पाठ
कृदन्त
कृत प्रत्यय :- धातुत्रों से संज्ञा-विशेषण अव्यय आदि बनाने के लिए जिन प्रत्ययों को धातुओं के साथ जोड़ा जाता है, उन्हें कृत्-प्रत्यय कहते हैं और उन प्रत्ययों के
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धातु.
हस् धातु -
से हंसने
अर्थ में
( २२ )
जुड़ने से जो संज्ञा, विशेषण प्रादि रूप बनते हैं, उन्हें ही कृदन्त कहा गया है । प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार इन कृदन्तों का निम्न प्रकार वर्गीकरण किया गया है। (१) वर्तमानकालिक कृदन्त : -- इस कृदन्त में किसी कार्य के लगातार होते रहने की सूचना मिलती है। जैसे :हसतो = हँसता हुआ, चलंतो = चलता हुआ । इस अर्थ में धातु के साथ (i) न्त (शर्तृ) (ii) माण ( शानच् ), एवं (iii) ई प्रत्यय जोड़ जाते हैं । प्रथम दो प्रत्यय पुलिंग एवं नपुंसक लिंग में तथा तीसरा प्रत्यय स्त्रीलिंग का सूचक होता है । इसमें 'ई' के स्थान में कहीं कहीं 'न्ती' एवं 'माणि' का प्रयोग भी पाया जाता है ।
न्त, माण एवं ई प्रत्यय के पूर्व में आने वाले 'अ' स्वर के स्थान में विकल्प से 'ए' हो जाता है । संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार परस्मैपदी धातूमों में शट प्रत्यय एवं प्रात्मनेपदी धातुओं तथा कर्मणि प्रयोग में शानच ( यान अथवा मान ) प्रप्ययों का विधान है । लेकिन प्राकृत व्यापार में वह नियम लागू नहीं होता । इसके उदाहरणार्थ कुछ कृदन्त रूप यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं :
---
प्रत्यय
(न्त)
(शत)
(माण
( शानच् )
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पुल्लिंग
हसंतो,
हतो
नपुंसकलिंग
हसंतं,
हसेंतं,
हसमाणोः हसमाणं
हसेमाणो
हमा
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स्त्रीलिंग -
(ई) हसंती, हसंती (ई) हसमाणी, (ई) हसमाणी,
-
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( २३ ) भू>हो= न्त (शत) होतो, होतं (ई) होगई, होने के
होएंतो होएंतं होएइ अर्थ में माण (शानच्) होप्रमाणो, होप्रमाणं होप्रमाणी,
होएमाणो होएमाणं होएमाणी इसी प्रकार गम् (गच्छंतो), पा (पाअंतो) चल (चलंतो) दा (दंतो) आदि कृदन्त रूप भी जानना चाहिए। वर्तमानकालिक कृदन्त का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है :(क) कर्मणि वर्तमान कृदन्त :-इस कृदन्त में धातु में
कर्मवाच्य के प्रत्यय (ईअ, इज्ज) जीड़कर उसी के साथ न्त, माण एवं ई प्रत्यय जोड़ देते हैं । जैसे :-हस् धातु से हस + ईअ+न्त +ो हसीअंतो। हस् + ईअ+माण + प्रो=हसीप्रमाणो। हस + इज्ज+न्त -- ओ= हसिज्जतो. हसिज्जमाणो
आदि। (ख) मावि वर्तमान कृदन्त :-इसमें भावि प्रत्यय
(ईन, इज्ज) जोड़कर उसी के साथ न्त, माण प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे :-भण् (कहना) धातु से 'भण् + ईन + न्त = भणीअंतं, भणीप्रमाणं ।
भण+ इज्ज+न्त = भणिज्जंतं, भणिज्जमाणं। . (ग) प्रेरक कर्तरि वर्तमान कृवन्त :-इसमें धातु के प्रेरक
(अ, ए, पाव, आवे प्रत्ययान्त) रूप में न्त, माण
और ई प्रत्यय जोड़ने पर कर्तृवाच्य में प्रेरणार्थक वर्तमान कृदन्त के रूप बन जाते हैं। जैसे हस् धातु
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( २४ )
से.हासंतो, हासेतो; हासमाणो, हासेमाणो, हसावंतो, हसावेतो, हसावमाणो, हसावेमाणो आदि । इसी प्रकार कृ धातु (कर) के कारंतो, कारतो, करावंतो
आदि रूप भी बनते हैं। (घ) प्रेरक कर्मणि वर्तमान कृदन्त :-इसमें धातु में प्रेरक
प्रत्यय (अ, ए, पाव, आवे) जोड़कर उसके साथ कर्म-प्रत्यय (ईअ, इज्ज ) जोड़ें। उसके बाद न्त, माण और ई प्रत्यय जोड़ने से उक्त कृदन्त के रूप बन जाते हैं। जैसे :-हस् धातु से (हस् + अं+ ईन +न्त = ) हासीअंतो। इसी प्रकार हासीप्रमाणो, हासिज्जमाणो, हसावीअंतो, हसीवीप्रमाणो, हसा
विज्जतो, हसाविज्जमाणो। २. भूतकालिक कृदन्त :
प्रस्तुत कृदन्त में किसी कार्य के समाप्त हो जाने की सचना देने के लिए "अ" का प्रयोग किया जाता है। संस्कृत-भाषा में इसके लिए क्त (त्) एवं क्तवतु (तवत् ) प्रत्ययों के प्रयोग मिलते हैं। इसमें कुछ प्रयोग ऐसे मिलते हैं, जो संस्कृत से ध्वनि-परिवर्तन के नियमों से बनाए गए हैं। उसमें 'अ' को कहीं-कहीं 'द' और 'त' भी हो जाता है। अतः प्रस्तुत कृदन्त में अ, द अथवा त प्रत्ययों के जुड़ने से धातु के अन्त के 'अ' के स्थान में 'इ' हो जाता है। जैसे :धातु . 'अ' प्रत्यय 'द' प्रत्यय 'त' प्रत्यय संस्कृत रूप पठ् (पढ) पढिो पढिदो पढितो पठितः । पढा) गम् (गम) गमियो गमिदो गमितो गतः (गया) कृ (कर) करियो करिदो करितो कृतः (किया)
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( २५ )
अन्य नियम
(१) भूत कृदन्त के कर्तृवाच्य एवं कर्मवाच्य में कोई विशेष भेद नहीं पाया जाता । किन्तु कहीं-कहीं संस्कृत के कर्मणि भूतकृदन्त में 'व' जोड़कर उसे प्रदर्शित किया जाता है । जैसे :- कृ धातु से कय + वं = कयवं ( कृतवान् ) । स्पृष्ट धातु से पुट्ठ + वं पुटुवं ( स्पृष्टवान् ) आदि ।
(२) प्रेरणार्थक भूत - कृदन्त में आवि और इ ( 'इ' प्रत्यय होने पर उसके उपान्त्य में 'प्र' को 'आ' होता है) प्रत्यय के जोड़ने के बाद भूत - कृदन्त के प्रत्यय धातु में जोड़ने से प्रेरणार्थक भूत - कृदन्त के रूप बनते हैं । जैसे :- कृ धातु से कर + आवि + अ = करावि ( करवाया ) । हस् धातु से हसावित्रं ( हंसवाया या हसाया ) । कर + इ = कारिअं ( कराया) आदि । (३) संम्बन्ध सूचक भूतकृदन्त: इसमें 'कर' अथवा 'करके' इस अर्थ में अथवा जब एक कर्ता की अनेक क्रियाएं होती हैं, तब पूर्वकालिक - क्रिया-बोधक धातुस्रों के साथ तु ( उ ) एवं तूण (ऊण) आदि प्रत्यय जोड़ दिए जाते हैं । तुप्राण (उत्राण), इत्ता, इत्ताण, आय और प्रत्ययों का प्रयोग प्रायः अर्धमागधी प्राकृत में मिलता हैं ।
( ४ ) इसमें यह भी ध्यातव्य है कि प्रत्ययों (आय एवं आए को छोड़कर) के पूर्व में आने वाले 'अ' को 'इ' और 'ए' आदेश होते हैं। जैसे :- हस् धातु से -
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( २६ ) हस+तु =हसितु, हसेउ (हँसकर) हस+अहसिन, हसेस, (हँसकर) हस + तूण-हसिऊण, हसिऊणं, हसेऊणं
_ (हँसकर) हस + तुप्राण=हसिउप्राण, णं,
हसेउप्राण, णं गह धातु से—गह- आय=गहाय (ग्रहणकर) ३. भविष्य कृदन्त :
भविष्य में किसी कार्य के होते रहने की सूचना देने के लिए धातु में 'इस्संत,' 'इस्समाण' और 'इस्सई' प्रत्यय जोड़ दिए जाते हैं। इनमें से इस्सई केवल स्त्रीलिंग में जोड़ा जाता है। यथार्थतः वर्तमान काल के प्रत्ययों में भविष्यत्-काल का बोधक 'इस्स' जोड़ने से ही भविष्यत्कालिक प्रत्यय बन जाते हैं। जैसे :
हस् धातु से पुल्लिग में हस+इस्संत । यो हसिस्संतो हस-+ इस्समाण+ो हसिस्समाणो तथा स्त्रीलिंग में
हस + इस्सई हसिस्सई रूप बनते हैं। ४. सम्बन्ध सूचक भूत-कृदन्त :
जब किसी एक कर्ता की अनेक क्रियाएँ हों तो पूर्वकालिक क्रिया का बोध कराने वाली धातु के साथ तु (उ) तूण (ऊण आदि प्रत्यय जोड़ दिए जाते हैं। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि तुग्राण (उप्राण, इत्ता, इत्ताण, आय, तथा पाए प्रत्ययों का प्रयोग अर्धमागधी प्राकृतागमों में मिलते हैं। इसके विविध रूप बनाने के लिए प्राकृत-वैया
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( २७ ) करणों ने निम्न नियम निर्धारित किए हैं :(क) 'आय' एवं 'आए' को छोड़कर सम्बन्ध सूचक भूत
कृदन्त के प्रत्ययों के पूर्व में आने वाले 'अ' को 'इ' अथवा 'ए' आदेश होते हैं। जैसे :- हस्+अ+तु=हसिउ, हसेउ
हस् +अ+अ =हसिन, हसे. (ख) तूण, तुआण और इत्ताण प्रत्ययों के 'ण' पर विकल्प से अनुसार होता है। जैसे :हस+तूण=हसिऊणं, हसिऊण, हसेऊणं,
हसेऊण.. हस + तुआण=हसिउपाणं, हसिउआण. हस ---इत्ता हसित्ता, हसेत्ता.. हस + इत्ताण= हसित्ताणं, हसित्ताण, हसेत्ताणं,
हसेत्ताण. इसी प्रकार अन्य धातुओं-जैसे हो (होउ, होऊणं होऊण) तथा भण, नम, दा, कर, पढ़, ठा, अादि के
भी इसी प्रकार के रूप बनते हैं। (ग) ध्वनियों में परिवर्तन हो जाने से भी शब्द रूप बन जाते हैं। जैसे :
वन्दित्वा-वंदित्ता.। गत्वा-गच्चा, गत्ता.
ज्ञात्वा-णच्चा । सुप्त्वा-सुत्ता. (घ) प्रेरणार्थक सम्बन्ध सुचक रूप बनाने के लिए
प्रेरणार्थक प्रत्यय जोड़ने के बाद तु, तूण आदि प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे :
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'( २८ )
कर + प्रावि=करावि+तूण=कराविऊण
(कारयित्वा-करवाकर) ५. हेत्वर्थक अथवा निमित्तार्थक कृदन्त :
जब कोई क्रिया किसी अन्य क्रिया के निमित से कि जाती है, तब उसे उक्त हेत्वर्थक अथवा निमितार्थक कृदन्त कहा जाता हैं। इसमें धातु के साथ “तु" ( उं) “दु" एवं "त्तए" प्रत्यय जुटते हैं। इनमें 'त्तए' प्रत्यय का प्रयोग अर्धमागधी में तथा 'दु' प्रत्यय का प्रयोग शौरसेनी प्राकृत में प्रचुरता से मिलता है। इसके सामान्य नियम इस प्रकार
(क) हेत्वर्थक कृत् प्रत्ययों के जुड़ने पर पूर्व में आने वाले .. 'अ' के स्थान पर 'इ, और 'ए' आदेश हो जाते हैं। . जैसे :- हस धातु से - हस+तु ( उं) = हसिउं,
... हसेउं ( हँसने के लिए)। हस+दु = हसिदु, हसेदु।
हस+त्तएहसित्तए, हसेत्तए (ख) प्रेरणार्थक हेत्वर्थक कृदन्त बनाने के लिए प्रेरणार्थक प्रत्यय के साथ हेत्वर्थक प्रत्यय जोड़े जाते हैं।
जैसे :- हस+प्रावि+तु = हसावित्रं, ६. विध्यर्थक अथवा कृत्य प्रत्यय कृदन्त :
. 'चाहिए' 'योग्यता' अथवा 'विधि' आदि अर्थों में तव्व
(अव्व ) अणिज्ज और प्राणी प्रत्यय होते हैं । संस्कृत में यही प्रत्यय तव्यत्, अनीयर आदि (तव्य, केलिमर, यत्, क्यप् और ण्यत् ) नामों से जाने जाते हैं ।
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( २६ )
प्राकृत में विध्यर्थक प्रधान प्रत्यय 'अणिज्ज' है और 'अणीअ' का प्रयोग मागधी, अर्धमागधी एवं शौरसेनी
प्राकृत में बहुलता से मिलता है । . (क) इसमें यह जानना आवश्यक है कि जब धातु में 'तव्व'
एवं 'दव्व' प्रत्यय जोड़े जाते हैं, तब उसके साथ 'इ' एवं 'ए' आदेश हो जाते हैं। तथा 'य' प्रत्यय के स्थान पर 'ज्ज' हो जाता है। जैसे :धातु तव्व (अव्व)- अणिज्ज- अणीयप्रत्यय
प्रत्यय प्रत्यय श्रु धातु =सुण-सुणअव्वं सुणिज्जं सुणणीग्रं
सुणेअव्वं ज्ञा धातु =जाण-जाणिअव्वं जाणणिज जाणणीअं
जाणेअव्वं, धृ धातु =धर- धरिश्रव्वं धरणिज्जं धरणीग्रं
धरेअव्वं (ख) प्रेरक विध्यर्थक कृदन्त में धातु में प्रेरक प्रत्यय के साथ
विध्यर्थ प्रत्यय जोड़ा जाता है।
जैसे :- हस + प्रावि +तव्व = हसाविअव्वं । ७. शीलधर्म वाचक (कर्तृवाचक) कृदन्त :
शीलधर्म ( स्वभाव ) सूचक अर्थ में धातु के साथ 'इर' प्रत्यय लगता है। जैसे :-हस धातु से-हस + इरे-हसिरो ( हंसने की स्वभाव वाला) हस+इर+पा -हसिरा ( हंसने की स्वभाव वाली),आदि
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पाँचवाँ पाठ
तद्धित-प्रत्यय-प्रकरण अर्थ-विशेष को प्रकट करने के लिए जिन प्रत्ययों को संज्ञा आदि शब्दों में जोड़ा जाता है, उन्हें तद्धित-प्रत्यय कहते हैं। ये तद्धित-प्रत्यय सामान्यतया १० प्रकार
के माने गए हैं, जो निम्न प्रकार हैं :१. अपत्यार्थक :- अपत्य (सन्तान-पुत्र-पुत्री) अर्थ के
प्रसंग में अ, ई, प्रायण, एय, ईण आदि प्रत्यय जोड़े जाते है। किसी वंश अथवा गोत्र में उत्पन्न पौत्र आदि के लिए भी इन प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। जैसे :अ-वसुदेव - अ-वसुदेवस्स ' अपत्त =वासुदेवो
( वसुदेव का पुत्र) ई-दशरह +ई-दस रहस्स अपत्त =दास रही
( दशरथ का पुत्र) प्रायण-नड-+-पायण-नडस्स अपत्तं =नाडायणो
( नट का पुत्र) एय-कुलडा। एय-कुलडाए अपत्त कोलडेया
( कुलटा का पुत्र) ईण-महाउल -- इण---महाउलस्स अपत्त =
महाउलीणो(महाकुल का पुत्र)
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२. तुलनात्मक-अतिशयार्थक:
जब किन्हीं दो की तुलना में किसी एक का उत्कर्ष अथवा अपकर्ष दिखाया जाता है, तब विशेषण-वाचक शब्द में 'अर', तथा 'ईअस', एवं जब दो से अधिक की तुलना में किसी एक का उत्कर्ष या अपकर्प प्रदर्शित किया जाता है, तब 'अम' एवं 'इट्ठ' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे :विशेषण
अर
अम पित्र ( प्रिय )- पिअपर - पिअग्रम खुद्द (क्षुद्र )- खुद्दार - खुद्दप्रम अप्प (अल्प)- अप्पर अप्पप्रम अहिय (अधिक) अहियअर अहियअम
विशेषणअप्प ( अल्प) धम्मी (धर्मी) गुरु -
ईस कणीस धम्मीप्रस गरीप्रस
कणि
धम्मिट्ठ
गरिट्ठ
३. मत्वर्थीय:
किसी वस्तु के अधिकारी की (अथति 'वान्' या 'वाला') सूचना देने के लिए इल्ल, ऊल्ल, पाल, आलु, इर, वंत, मंत, इत्त, मण आदि प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। इन प्रत्ययों का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है-(क) "इसके पास है" ( तदस्य अस्ति) तथा (ख) "इसमें है" (तदस्मिन् अस्ति ) जैसे :
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४.
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इल्ल - गुण + इल्ल सोहा + इल्ल
उल्ल - वियार + उल्ल
इर
वंत -
मंत
( ३२ )
आल
रस + आाल =
आलु - दया + प्रोलु =
रसालो
दयालू
लज्जा + आलु = लज्जालु
गव्व + इर=
गव्विरो
धण + वंत:
धणवंतो
५. इदमार्थक :
+
पुण्णमंतो
पुण्ण + मंत: सिरि+मंत = सिरिमंतो
कव्व + इत्तो = कव्वइत्तो
सोहा + मण
सोहामणो
( गुणवान् )
गुणिल्लो सोहिल्लो ( शोभावान् ) वियाल्लो ( विचारवान् ।
=
इमा - पुप्फ + इमा:
लघु + इमा
तण - फल - त्तणं : माणुस + तणं. :
=
इत्त
मण
भावार्थक :
भाव वाचक संज्ञा बनाने के लिए 'इमा' और 'त्तण' प्रत्यय जोड़े जाते हैं । 'इमा' प्रत्यय स्त्रीलिंग एवं 'तण' प्रत्यय पुल्लिंग एवं नपुंसक लिंग में प्रयुक्त होते हैं ।
जैसे :
( रसवान् )
( दयावान् ) (लज्जावान् )
(गर्ववान्, अहंकारी)
( धनवान् )
( पुण्यवान् )
( श्रीमान् )
पुप्फिमा
लघिमा
फलत्तणं
माणुसत्तणं
( काव्यवान् )
( शोभावान् )
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( पुष्पत्वम् )
( लघुत्वम्
( फलत्वम् )
( मनुष्यत्वम् )
"यह इसका है" इस प्रकार का सम्बन्ध बतलाने के लिए 'केर' एवं 'एच्चय' प्रत्यय जोड़े जाते हैं । जैसे :
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केर- पर+केर = परकेरं (दूसरे का)
अम्ह+केरं= . अम्हकेरं । (हमारा) . राय । केरं = रायकेरं (राजा का) एच्चय-अम्ह+ एच्चयं = अम्हेच्चयं (हमारा) तुम्ह+ एच्चयं = तुम्हेच्चयं
(तुम्हारी) ६. सादृश्यार्थक :- .
"यह इसके समान है" यह अर्थ व्यक्त करने के लिए "व" प्रत्यय जोड़ा जाता है। जैसे :
चंद+व्व = चंदव्व (चन्द्रमा के समान )
महु +व्व =महुव्व (मधु के समान ) ७. भवार्थक :
"होने” सम्बन्धी अर्थ बतलाने के लिए अथवा किसी वस्तु में अन्य किसी दूसरी वस्तु के होने की सूचना देने हेतु 'इल्ल' एवं 'उल्ल' प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे :प्रत्यय पुल्लिग
स्त्रीलिंग . इल्ल- गाम+इल्ल =गामिल्लो गामिल्ली
(ग्राम में है) हेट+ इल्ल=हेढिल्लो हेडिल्ली उल्ल- नयर + उल्लं=नयरुल्लं नयरुल्ली
तरु+उल्लं तरुल्लं तरुल्ली ८. आवत्वार्थक :
"दो बार" "तीन बार" आदि क्रिया की गणना करने के लिए संख्यावाची शब्दों के साथ "हुत्त" एवं 'खुत्त' प्रत्यय लगाए जाते हैं। जैसे :
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. .
( ३४ )
हुत्त- एय+हुत्तं = एयत्तं, एयखुतं (एक बार)
दु+हुत्तं =दुहुत्तं, दुखुतं (दो बार)
सय +हुत्तं = सयहुत्तं, सयखुतं सौ बार) ६. कालार्थक :
"जिस समय,". "उस समय" आदि काल-बोध कराने वाले 'एक्क', 'सव्व' आदि शब्दों के साथ "सि" सिग्रं, एवं 'इया' प्रत्यय लगाए जाते हैं। जैसे :
एक्क+सि - एक्कसि (एक समय) एक्क -1 सिमं = एक्क सिधे । ) एक्क +इया =एक्कइया = (एक समय) सव्व+सि = सव्वसि = (सभी समय) सव्व-+सिग्रं = सव्वसिअं= ( )
सव्व + इमा=सव्वा = ( , ) १०. परिमाणार्थक :
मात्रा अथवा परिमाण व्यक्त करने के लिए इत्तिम, एत्ति, एत्तिल एवं एदह प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। जैसे :
ज+इत्तिअं=जित्तिअं (यावत् ) ज+एत्तिअंजेत्तिनं (यावत् ) ज+एत्तिलं =जेत्तिलं (यावत् )
ज=एदह -जेद्दहं (यावत् । ११. विभक्त्यर्थक क्रिया-विशेषण :
पंचमी एवं सप्तमी विभक्ति में क्रमश: त्तो, दो (पंचमी) एवं . हि, ह एवं त्थ (सप्तमी) प्रत्यय जड़ते हैं। जैसे :
त्तो-सव्व+त्तो=सव्वत्तो = (पंचमी)
दादा
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दो-सव्व + दो = सव्वदो = (पंचमी) __ हि-त+हि =तहि = (सप्तमी)
ह-त+ह तह =
त्थ-त+त्थ = तत्थ = १२. स्वार्थिक :
संस्कृत के स्वार्थिक 'क' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से अ, इल्ल, उल्ल, ल एवं ल्ल आदि आदेश होते हैं। जैसे :
अ-चंद - अ = चंदनो, चंदो. इल्ल-पल्लव+ इल्ल-पल्लविल्लो, पल्लवो. उल्ल-हत्थ+ उल्ल = हत्थल्लो, हत्थो ल -पत्त+ल . = पत्तलं. ल्ल ---नव+ल्ल = नवल्लो
एक+ल्ल = एकल्लो .
छठवाँ पाठ
स्त्री प्रत्यय किसी भी व्याकरण के नियम के अनुसार स्त्रीलिंग शब्द दो प्रकार के माने गए हैं--(१) मूल स्त्रीलिंग शब्द अर्थात् जिन शब्दों का मूल अर्थ स्त्रीलिंग सूचक है। जैसेलच्छी (लक्ष्मी) माला, लदा (लता), जडा (जटा) आदि । (२) वे स्त्रीलिंग शब्द, जो प्रत्यय जोड़कर बनाए जाते हैं। इस नियम के अनुसार पुल्लिग शब्दों में स्त्री-वाचक प्रत्यय जोड़ देने से वे स्त्रीलिंग सूचक शब्द बन जाते हैं। जैसे :
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(
३६ )
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राया (राजा) शब्द से ई प्रत्यय जोड़कर (राया + ई) राणी बंभण = ( ब्राह्मण + ) = बंभणी आदि ।
(
संस्कृत - व्याकरण की दृष्टि से स्त्री प्रत्यय आठ प्रकार के हैं : - ( १ ) टाप् (२) डाप (३) चाप् ( ४ ) ङाप् (ग्रा) (५) ङीष् (६) ङीन् (ई) (७) ऊङ (ऊ), ८ ) ति । किन्तु चूँकि प्राकृत भाषा की सरलीकरण की प्रवृत्ति है, अतः उसमें केवल तीन प्रकार के ही स्त्री-प्रत्यय मिलते हैं। (१) आ, (२) ई, (३) ऊ । इनके नियम निम्न प्रकार हैं: १. प्रायः प्रकारान्त शब्दों को स्त्री - वाचक बनाने के लिए " " प्रत्यय जोड़ा जाता है । जैसे
*-*-*
बाल + आ = बाला ( कन्या) । वच्छ + श्रा = वच्छा (वत्सा) पोड + आ = पोढा (प्रौढा)
२. संस्कृत भाषा के नकारान्त ( शब्द के अन्त में 'न' आने वाले) तकारान्त ( शब्द के अन्त में 'त' आने वाले) एवं रकारान्त शब्दां को स्त्री-वाचक बनाने के लिए 'ई' प्रत्यय जोड़ा जाता है । जैसे
(क) न् - मालिन + ई = मालिणी (मालिनी)
(रानी)
(ब्राह्मणी)
( पुत्रवती )
राया + ई = राणी बंभण + ई = बंभणी त् - पुत्तवप्र + ई = पुत्तवई धणव + ई = घणवई ( धनवती ) सिरिम + इ = सिरिमई (श्रीमती) इकु भार + ई = कुंभारी, (कुम्हारी) सुवणार + ई = सुवण्णधारी ( सुनारिन) कुमार + ई = कुमारी
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( ३७ ) (ख) नर्तक, खनक पथिक, गौर, मत्स्य, मनुष्य, हरिण . आदि शब्दों को स्त्रीलिंग बनाने हेतु “ई” प्रत्यय
लगाया जाता है। जैसे :णट्टा --ई=णट्टई (नर्तकी) गोर+ईगोरी, खण+ईखणई (खनकी), माणुस + ई-माणुसी
हरिण+ई-हरिणी ण+ई=णई (नदी) ग) अकारान्त जातिवाचक शब्दों को स्त्री-वाचक बनाने के लिए भी 'ई' प्रत्यय जोड़ा जाता है। जैसे :
वग्घ + ई= बग्घी (व्याघ्री) सीह+ईसीही ( सिंहनी) हंस + ई हंसी सूअर-+इ=सूअरो ( शूकरी)
रक्खस नई रक्खसी (राक्षसी) (घ) संस्कृत-भषा के इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, मृड, हिम
( महत् अर्थ में ) अरण्य ( महत् पर्व में ), यव ( दुष्ट अर्थ में ) यवन् (लिपि अर्थ में) मातुल आदि शब्दों को स्त्री-वाची बनाने के लिए 'ई' प्रत्यय तथा उसके पूर्व "प्राण" जोड़ दिया जाता है। जैसे :इंद+आण+ई = इंदाणी; भव+पाण+ई = भवाणी (पार्वती). वरुण + पाण+ई =वरुणाणी; सव्व-+आण+ई-सव्वाणी.
इसी प्रकार रुद्दाणी, मिडाणी, हिमाणी अरण्णाणी, यवाणी, यवणाणी, माउलाणी शब्द
बनते हैं। . . (ङ) उपाध्याय एवं प्राचार्य की सूचना देने के लिए 'ई'
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( ३८ ) प्रत्यय के पूर्व 'प्राण' जोड़ा जाता है। जैसे :
आइरिय + आण+ई-आयरिया (प्राचार्याणी) उवज्झाय+पाण+ई =उवज्झायाणी (उपाध्यायानी)
किन्तु जब कोई महिला स्वयं ही उपाध्याय अथवा प्राचार्य (Teacher) हो तब उसमें 'मा' प्रत्यय होता है। जैसे :-उवज्झाय + आ-उवज्झाया
आयरिय+पापायरिया (च) आर्य एवं क्षत्रिय शब्दों को स्त्री वाची बनाने में 'ई'
प्रत्यय एवं 'प्राण' विकल्प से होते हैं। जैसे :
- अय्या-अय्याणी; खत्तिया-खत्तियाणी, (छ) शारीरिक अवयवों-मुख, केश, नासिका, उदर, जंघा,
दन्त, कर्ण, शृग, नख, में 'ई' प्रत्यय विकल्प से जुड़ता है। जब वह नहीं जुड़ेगा तब 'आ' प्रत्यय जटेगा। जैसे :चंदमुही-चंदमुहा; सुएसा-सुएसी, तुगसासिइ-तुगनासिया, दीहोअरी-दीहोपरा, वज्जजंघिइ-वज्जजंघिया, वज्जदंतिइ-वज्जदंतिया, दीघकण्णिइ-दीहकण्णिा , लंवसिंगइ-लंबसिंगिया, वज्जणही-वज्जणहा, आदि। . अजातिवाचक शब्दों में अकारान्त पुल्लिग शब्दों को स्त्री-वाचक बनाने के लिए विकल्प से 'इ' प्रत्यय जुटता है। जैसे :नीली-नीला, काली-काला, हसमाणी-हसमाणा, इमीणं
इमाणं आदि । (झ) धर्म-विधि से विवाहित महिला के लिए पाणिग्रहण
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शब्द से 'ई' प्रत्यय जुड़कर पाणिग्गहीदि, तथा धर्म रहित विवाहित महिला के लिए ('आ' प्रत्यय
जोड़कर ) पाणिग्गहीदा, शब्द का प्रयोग होता है। (ज) संस्कृत भाषा के जानपद, कुड, गोण, स्थल, भाग,
नाग, कुश, कामुक आदि शब्दों को स्त्री वाचक बनाने के लिए विकल्प से 'ई' प्रत्यय जुटता है। जैसे :जानपद+ई = जाणवई – जाणवा, कुंडी-कुडा, गोणी गोणा, थली-थला, भागी-भागा, नागी-नागा,
कुसी-कुसा, कामुई-कामुमा, आदि । ३. 'ऊ' प्रत्यय के प्रयोग नगण्य ही मिलते हैं। जैसे
अज्ज + उ=अज्जु, अज्जया (आर्या) कुछ विशेष स्मरणीय शब्द : . पुल्लिग
स्त्रीलिंग.. गिहवइ ( गृहपति ) -- गिहवण्णी ( गृहपत्नी) विउसो (विद्वान् ) - विउसी (विदुषी ) माणुसो (मनुष्य) माणुसी (मनुष्यनी) सहा ( सखा ) . - सही . ( सखी) मुणि (मुनि) मुणी (मुनि) साहु ( साधु ) साहू (साधु ) जुवा (युवक) जुवई (युवती) सुद्दो (शूद्रः) सुद्दा, सुद्दी ( शूद्रा, शुद्री) तरुणो
तरुणी महिसो
महिसी निउणो (निपुण) - निउणा
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बीयो (दूसरा) - वीया सेट्टि (सेठ ) - सेटिनी ( सेठानी) पइ (पति) - भज्जा ( भार्या, पत्नी) पिनो (पिता) - माया ( माता) पुरिसो (पुरुष) - इत्थी (स्त्री) राया (राजा) - रण्णी (रानी) भाया (भ्राता) - बहिणी ( बहिन )
सातवाँ पाठ क्रारक एवं विभक्तियाँ :कारकप्राकृत-व्याकरण के आचार्य हेमचन्द्र ने कारक की परिभाषा बतलाते हुए कहा है कि-"क्रियान्वयि कारकम्” अर्थात् कारक उसे कहते हैं, जिसका सम्बन्ध क्रिया ( Verb) के साथ हो। पुन: उन्होंने कहा है कि "क्रियाहेतु : कारकम्" अर्थात् क्रिया ( Verb ) की उत्पत्ति में जो सहायक हो, उसे कारक कहते हैं। विभक्तिविभक्ति की परिभाषा के प्रसंग में एक वाक्य बहुत ही प्रसिद्ध है-"संख्याकारकबोधयित्री विभक्तिः" अर्थात् संख्या एवं कारक का जो बोध (ज्ञान) करावे उसे "विभक्ति" कहते हैं। जैसे :-'पुरिसाणं' से अनेक पुरुषों का ज्ञान तो होता है और उसमें षष्ठी विभक्ति भी है, किन्तु वह कारक नहीं।
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( ४१ ) कारक और विभक्ति में अन्तरयद्यपि व्याकरण का यह नियम है कि कता में प्रथमा विभक्ति और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे :-- रामो गाम गच्छइराम ग्राम को जाता हैं। किन्तु कारक एवं विभक्ति की परिभाषाओं का अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि दोनों में बहुत अन्तर है। सब से पहला अन्तर तो यह है कि एक ही वाक्य में कारक कुछ होता है और विभक्ति दूसरी ही होती है, जैसे- कंसो किण्हेण हो (कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया)।
उक्त वाक्य में मारण-क्रिया का कर्ता (करने वाला) कृष्ण है किन्तु उसकी विभक्ति प्रथमा न होकर तृतीयाविभक्ति है। इसी प्रकार मारण-क्रिया का असली कर्म कंस है, उसमें द्वितीया विभक्ति न होकर उसे प्रथमा विभक्ति में रखा गया है।
प्राकृत भाषा में कारक एवं विभक्तियों से सम्बन्धित नियम संस्कृत के समान ही हैं, फिर भी उनके व्यवहार में
कहीं-कहीं अन्तर भी पाया जाता है। जैसे :(१) जहाँ संस्कृत में ७ विभक्तियाँ होती हैं, वहीं प्राकृत में ६
विभक्तियाँ होती हैं। क्योंकि इसमें चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति एक समान होती है। जैसे :-णमो देवस्स (नमः देवाय) =देवता के लिए नमस्कार हो। मुणीण देई
(मुनिभ्यो ददाति)= मुनियों के लिए देता है। २. द्वितीया, तृतीया, पंचमी एवं सप्तमी विभक्तियों के स्थान
पर षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे :
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( ४२ ) -द्वितीया में पष्ठी वि०-सीमंधरस्स वंदे = (सीमंबर की
वन्दना करता हूँ) -तृतीया से षष्ठी वि-चिरस्स मुक्का=(चिरकाल से
- मुक्त हुई) -पंचमी से षष्ठी वि०-चोरस्स दोहेइ = ( चोर से
. डरता है) -सप्तमी से षष्ठी वि०-पिट्ठीए केसभारो= ( पीठ पर
केशों का भार है ) ३. द्वितीया एवं तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति
के प्रयोग मिलते है। जैसे-णयरे ण जामि (=नगर को नहीं जाता हूँ। तिसु तेसु अलंकिया पुहवी (= उन तीनों
के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हैं ) । ४. पंचमी विभक्ति के स्थान पर कभी तृतीया एवं कभी सप्तमी
विभक्ति के प्रयोग मिलते हैं। जैसे :चोरेण-वीहेइ (=चोर से डरता है)। -विज्जालयम्मि पढिउ आगो बालो (=विद्यालय से
.. पढ़कर बालक आ गया है)। अर्धमागधी प्राकृत में सप्तमी के स्थान में तृतीया विभक्ति के प्रयोग मिलते हैं। जैसे-- तेणं कालेणं तेणं समएणं-(उस काल में, उस समय में)। कारकों की संख्या:पूर्व में कहा जा चुका है कि प्राकृत में ६ कारक एवं ६ विभक्तियाँ मानी गई हैं। सम्बोधन पृथक् विभक्ति नहीं मानी गई है। क्योंकि वह प्रथमा विभक्ति ही है। षष्ठी
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( ४३ ) एवं चतुर्थी विभक्ति को भी एक समान माना गया है। इस
प्रकार कारक निम्न प्रकार प्राप्त होते हैं :(१) कर्ता कारक :
वह है, जो क्रिया का प्रधान कारक अर्थात् करने वाला हो । दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि क्रिया के करने में जो स्वतन्त्र हो, उसे कर्ता-कारक कहते हैं। जैसे :-सामो गच्छइ (= श्याम जाता है) इसमें “गच्छई" क्रिया का प्रधान
कर्ता श्याम है। अतः श्याम कर्ता कारक है। (२) कर्म कारक :
क्रिया के व्यापार का फल सूचित करने वाली संज्ञा के रूप को कर्मकारक कहते हैं। अथवा कर्तृवाच्य के अनुक्त कम में (अर्थात् कर्ता को जो अभीष्ट हो, उसमें) कर्म कारक होता है। जैसे :--पयेण ओयणं भुजइ ( =दूध से चाँवल खाता है) इसमें कर्ता को यद्यपि दूध एवं चाँवल दोनों अभीष्ट हैं, फिर भी अभीष्टतम (सर्वाधिक इच्छित) चाँवल ही है, दूध तो उसमें केवल सहायक पदार्थ है, न कि प्रमुख । अतः प्रोयणं ( चाँबल) में ही कर्म संज्ञा हुई है, न कि पय (दूध ) में। अन्य नियम(क) द्विकर्मक धातुओं का प्रयोग होने पर गौण-कर्म (अकथित) में अपादान कारक में भी द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे :-माणवयं पहं पुच्छइ (बालक से मार्ग को पूछता है)। यहाँ पर पहं ( पथ मार्ग) ही कर्ता का मुख्य अभीष्ट है और माणवक (बालक) तो अपादान-कारक
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( ४४ ) (माणवक से) होने के कारण गौण है। अतः पहं में द्वितीया विभक्ति होगी। (ख) अभिप्रो (दोनों ओर), परिग्रो (चारों और), समय (समीप), निकहा (समीप), हा (खद), पडि (ोर, तरफ), सव्वग्रो (सभी ओर), धिम (धिक) उपरि-उवरि (ऊपर) समया, (समीप) इन शब्दों के योग में इनका जिनसे संयोग हो, उनमें कर्म कारक द्वितीया-विभक्ति होती है। जैसे :अहियो किसणं (कृष्ण के दोनों ओर), परिमो राम (राम के चारों ओर) गाम समया (गाँव के समीप), निकहा लक (लंका के समीप) आदि।
(३) करण कारक --
जो क्रिया की सिद्धि में कर्ता के लिए सबसे अधिक सहायक हो। अथवा, अपने अभीष्ट-कार्य की सफलता के लिए कर्ता जिसकी सर्वाधिक सहायता ले। उस स्थिति में करण कारक होता है। जैसे :-कण्हेण बाणेण हो कसो (=कृष्ण ने बाण के द्वारा कंस को मारा)। प्रस्तुत उदाहरण में कर्ता कृष्ण ने कंस को मारने में सबसे अधिक सहायता बाण से ली, इसीलिए बाण में तृतीय विभक्ति हुई। यद्यपि कंस-वध में कृष्ण के हाथ एवं धनुष भी सहायक हैं, किन्तु वे प्रमुख नहीं हैं, इसलिए उनमें करण-कारक नहीं हुआ।
अन्य नियम(क) सह-साथ सूचक शब्द-सह समं, साग्रं एवं सद्ध के योग में तृतीया-विभक्ति होती है जैसे :पुत्तेण सह प्रायो पिया-पिया (=पुत्र के साथ पिता पाया)
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( ४५ ) लक्खणो रामेण समं गच्छइ (लक्ष्मण राम के साथ जाता है)
" , साअं , ( , , , ,)।
(ख) जिस विकृत अंग के द्वारा अंगी में विकार ज्ञात हो, उस अंग में तृतीया विभक्ति होती है जैसे :__ पाएण खंजो (=पर से लंगड़ा)।
कण्णेण बहिरो (=कान से बहिरा) (ग) जिस हेतु (प्रयोजन) से कोई कार्य जाना जाय, उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे :
दंडेण घडो जागो (=डंडे के कारण घड़ा उत्पन्न हुआ)। (४) सम्प्रदान-सम्बन्ध कारक
किसी के लिए क्रिया की जाय या वस्तु के दान देने के कारण कर्ता जिसे सन्तुष्ट करता है, उसे सम्प्रदान-सम्बन्ध कारक कहते हैं। इसमें चतुर्थी अथवा षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे:-विप्पाय विप्पस्स वा गावं देइब्राह्मण के लिए गाय दान में देता है। अन्य नियम
(क) रुचि अर्थ में। जैसे :- हरिणो रोयइ भक्ति= हरि के लिए भक्ति अच्छी लगती है।
(ख) 'कर्ज लेना' धातु के योग में ऋण देने वाले में । जैसे-भत्ताय भत्तस्स वा धरइ मोक्खं हरि-हरि भक्त के लिए मोक्ष धारण करता है। (ग) क्रोध एवं ईर्ष्या के अर्थ में, जैसे :
हरिणो कुज्झइ=हरि के ऊपर क्रोध करता है।
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( ४६ )
हरिणो दोहद हरि के ऊपर द्रोह करता है । (घ) नमस्कार अर्थ में, जैसे :हरिणो णमो - हरि के लिए नमस्कार ।
(५) अपादान कारक -
जिसमें किसी वस्तु के अलगाव की सूचना मिले उसमें पंचमी विभक्ति होती है । जैसे—
धावत्तो प्रस्सत्ती पडइ = दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है । अन्य नियम -
1
( क ) घृणा, प्रमाद आदि के अर्थ में । जैसे - पावतो दुगुच्छइ विरमइ = पाप से घृणा करता है । धम्मत्तो पमायइ = धर्म से प्रमाद करता है ।
(ख) असह्य पराजय के अर्थ में, जैसे :- प्रज्झयणत्तोपराजयइ = अध्ययन को असह्य मानकर भागता है ।
(ग) हेतु (कारण) के अर्थ में, जैसे :
अण्णस्स उस्स वसइ = अन्न - प्राप्ति के प्रयोजन से रहता है ।
(६) अधिकरण कारक
किसी भी क्रिया के आधार को अधिकरण कारक कहते हैं । जैसे
मोक्खे इच्छा प्रत्थि = मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा है । तिलेसु तैलं = तिल में तेल है ।
यहाँ मोक्ष एवं तेल क्रिया के प्रमुख आधार होने से अधिकरण कारक है । इनमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है ।
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आठवाँ पाठ
समास परिभाषा-- 'समास' का शाब्दिक अर्थ 'संक्षेप' होता हैं। व्याकरण की दृष्टि से समास उसे कहते हैं. जब दो या. दो से अधिक सुबन्त-पदों अर्थात् शब्दों को परस्पर में इस प्रकार से जोड़ा जाय कि जिससे शब्द का आकार छोटा हो जाने पर भी उसका अर्थ ज्यों का त्यों बना रहे । जैसे :धम्मस्स पुत्तों=धम्मपुत्तो (धर्मपुत्र:)। यहाँ पर पूर्व-पदधम्मस्स में धम्म के साथ जुड़ी हुई सम्बन्ध-कारक "स्स" विभक्ति का समास हो जाने के कारण लोप हो गया तथा वह संक्षिप्त होकर "धम्मपुत्तो" रह गया और उसके अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
सामासिक अथवा समस्त पद-जैसा कि ऊपर बताया गया था कि समास में प्रायः पूर्व-पद अथवा शब्द की विभक्ति का लोप हो जाता है, इसीलिए समास से सिद्ध होने वाले पद को सामासिक-पद अथवा समस्त-पद कहते हैं। जैसे-धम्मस्स +पुत्तो, ये दो पद हैं, किन्तु जब समास होकर यह "धम्मपुत्तो" हो गया, तब इसे सामासिकपद अथवा समस्तपद कहा जायगा।
विग्रह- सामासिक पद में विभक्ति-चिन्ह जोड़कर जब उसे अलग-अलग पदों में विभक्त किया जाता है, तब इस क्रिया को “विग्रह" कहते हैं। जैसे :-धम्मपुत्तो का
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१
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( ४८ )
विग्रह करते समय उसके पूर्वपद में "स्स" विभक्ति जोड़ने से उसका रूप इस प्रकार हो जायगा -धम्मस्स पुत्ती - धम्मपुत्ती । कलासु कुसलो - कलाकुसलो ।
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समास एवं विग्रह में अन्तर - जब सामासिक - पद के शब्दों में विभक्ति - चिन्ह जोड़कर उसे पृथक्-पृथक् रूप में बताया जाता है, तब उसे विग्रह कहते हैं । और इसके विपरीत जब विभक्ति का लोप करके दो या दो से अधिक पदों को जोड़ दिया जाता है, तब उसे समास कहते हैं, दोनों में यही अन्तर है । समास के भेद:
-
- प्राकृत-व्याकरण के अनुसार समास के प्रमुख रूप से चार भेद माने गए हैं :
१ अव्वइ - भाव समास (अव्ययीभाव समास) ( तत्पुरुष समास )
२ तप्पुरिस - समास
३ बहुब्बीहि समास ४ दंद-समास
अव्वइ-भाव- समास
अव्ययीभाव का अर्थ यह है वह भी अव्यय हो जाता है । की प्रधानता होने के कारण पूर्व पद का समस्त पद अव्यय हो जाता है । इस समास का प्रयोग निम्नलिखित ११ प्रकार के प्रसंगों में होता है
:
(१) विभक्ति के अर्थ में, जैसे :
( बहुब्रीहि समास ) ( द्वन्द्व समास )
(२) समीप अर्थ में, जैसे
कि पहले जो अव्यय नहीं था, प्रस्तुत समास में 'अव्यय'
हरिम्मि इइ = अहिहरि ( हरि के विषय में )
राइणो समीवं = उवराय ( राजा के समीप )
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( ४६ ) (३) समृद्धि-अर्थ में, जैसे
मद्दाणं समिद्धि =सुमद्द ( मद्र-देश की समृद्धि ) . (४) अभाव-अर्थ में, जैसे__ मच्छिमाणं अहावो =णिम्मच्छिग्रं ( मक्खियों का
अभाव) (५) अत्यय ( विनाश )-अर्थ में, जैसे-.........
हिमस्स अच्चमो-अइहिमं ( जाड़े की समाप्ति ) . (६) असम्प्रति ( अनौचित्य ) अर्थ में, जैसेणिद्दा संपइ ण जुज्जइ=अइणिई (निद्रा के अनुपयुक्त
काल में). (७) पश्चात् अर्थ में, जैसे
भोयणस्स पच्छा=अणुभोयणं (भोजन के बाद) . (८) यथाभाव अर्थ में, ( = योग्यता, अनतिक्रम्य एवं वीप्सा
अर्थात् द्विरुक्ति के अर्थ में ) जैसे :(क) योग्यता अर्थ में-रूवस्स जोग्गं अणुजोग्गं (रूप
के योग्य) (ख) अनतिक्रम्य अर्थ में-सत्ति अणक्कमिऊण जहासत्ति
(शक्ति के अनुसार) (ग) द्विरुक्ति अर्थ में--दिणं दिणं पइ-पइदिणं (प्रतिदिन) (६) आनुपूर्व्य (क्रम) अर्थ में, जैसे
जेट्ठस्स अणुपुब्वेण-अणुजे? (ज्येष्ठ के क्रम में) (१०) यौगपद्य (एक साथ) अर्थ में, जैसे
... चक्केण जुगवं सचक्क (चक्र के साथ-साथ) (११) सम्पत्ति के अर्थ में, जैसे
छत्ताणं संपइसछां (क्षत्रियों की सम्पत्ति)
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( ५० ) २ तप्पुरिस समास-इस समास में उत्तरपद प्रधान होता है।
इसका पूर्वपद प्रायः विशेषण एवं उत्तरपद प्रायः विशेष्य होता हैं। किन्तु इसके लिंग एवं वचन उत्तरपद के अनुसार होते हैं। जैसे-राइणो पुरिसो में उत्तरपद पुरिसो की प्रधानता है। इसका रूप बनेगा-रायपुरिसो।
तत्पुरुष समास दो प्रकार का है :-(१) बहिकरण (=व्यधिकरण) तत्पुरुष-समास एवं (२) समाणाहिकरण
(=समानाधिकरण) तत्पुरुष-समास । (१) बहिकरण तत्पुरुष समास-इस समास को सामान्य तत्पुरुष
समास भी कहा जाता है। इसमें दोनों पद विभिन्न विभक्तियों वाले होते हैं। इसमें पूर्वपद द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियों वाला होता है और उत्तरपद प्रथमा-विभक्ति वाला होता है। - पूर्वपद की विभिन्न विभक्तियों के आधार पर इस समास को ६ भेदों में विभक्त किया गया है :... (प्र) बोया ( द्वितीया ) तत्पुरुष (अर्थात द्वितीयान्त एवं प्रथमान्त)-समास-इसमें सिप, अतीअ, पडिअ, ग, पत्त एवं प्रावण्ण शब्दों के प्रसंग में द्वितीया विभक्ति के रहने के कारण द्वितीया तत्पुरुष-समास होता है । जैसे :किसणं सिओ= किसणसियो । कृष्ण के सहारे ); आसां अतीयोपासासीओ (आशा से अधिक); अग्गि पडिप्रो= अग्गिडिअो ( अग्नि में गिरा हुआ ), दिवं गो=दिवगयो ( मृत्यु को प्राप्त ), सुहं पत्तोसुहपत्तो (सुख-प्राप्त) कट्ठ प्रावण्णो = कट्ठावण्णो ( कष्ट को प्राप्त )।
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( ५१ ) (अ) तइआ-तृतीया तत्पुरुष (तृतीयान्त एवं प्रथमान्तसमास)-इसमें प्रथम पद तृतीया-विभक्ति का तथा अन्तिम पद प्रथमा-विभक्ति का होता है। जैसे :-- दयाए जुत्तो = दयाजुत्तो ( दया से युक्त);" पंकेण लित्तो = पंकलित्तो (कीचड़ से लिप्त)। ...
(इ) चतुर्थी एवं षष्ठी तत्पुरुष (चतुर्थ्यन्त अथवा षठ्यन्त एवं प्रथमान्त) समास-इसमें प्रथम, पद में चतुर्थी या षष्ठी विभक्ति एवं अन्तिम पद में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे :-मोक्खाय णाणं = मोक्खणाणं ( मोक्ष के लिए ज्ञान), लोयाय हिरो=लोयहियो (लोक के लिए हितकारी)। ___चूकि चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति समान होती हैं, अतः षष्ठी के उदाहरण निम्न प्रकार दिए जा सकते हैं। जैसे:पिसुणस्स वयणं =पिय वअणं ( चुगलखोर का कथन)), देवस्स पुज्जो देवपुज्जनो (देवता का पुजारी)। ___ (ई) पंचमी तत्पुरुष (पंचम्यन्त एवं प्रथमान्त ) समास-जैसे :-संसारापो भीओ=संसारभीत्रो (संसार से भयभीत), थेणाप्रो भीमोथेणभीमो (चोर से भय)
(उ) सप्तमी तत्पुरुष (सप्तम्यन्त एवं प्रथमान्त) समास - जैसे :-सहाए पंडिअो सहापंडिअो ( सभा में
पण्डित ), णरेसु सेट्ठो=णरसेंट्ठो (नरों में श्रेष्ठ)। (२) समाणाहिकरण (समानाधिकरण ) तत्पुरुष-समास-इस
समास का दूसरा नाम कर्मधारय-समास भी है। इसमें दोनों पद प्रथमा विभक्ति के होते हैं। जैसे-कण्हं तं वत्थंकण्हवत्थं ( कृष्ण-वस्त्र) यहाँ दोनों पद प्रथमा विभक्ति वाले हैं।
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( ५२ )
इसी कर्मधारय-समास का पूर्वपद जब संख्यावाची होता है, तब उसे द्विगु-समास कहा जाता है। जैसे :तिण्णि लोया=तिलोया (तीनों लोक)। इसमें पूर्वपद संख्या- .. वाची है तथा दोनों पर प्रथमान्त हैं। अतः यहाँ द्विगु-समास है। (इस द्विगु समास की चर्चा आगे की जायेगी)।
. कर्मधारय अथवा समानाधिकरण तत्पुरुष समास निम्नलिखित ५ प्रकार का होता है । . (क) विशषण-पद (अर्थात् विशेषण एवं विशेष्य)जैसे :पीअं च तं वत्यं चपीअवत्थं (पीला कपड़ा)। यहाँ पर पूर्वपद अर्थात पीनं (पीला) वत्थं (वस्त्र) का विशेषण है
और दोनों पद प्रथमा-विक्ति के भी हैं। अत: यहां समानाधिकरण तत्पुरुष अथवा कर्मधारय समास है। इसी प्रकार रत्तो य एसो घडो रत्तघडो आदि जानना चाहिए। .
(ख) विशेषणोभय पद (विशेषण+विशेषण) जैसे :सीअं च तं उण्हं य जेलंसीउण्हं जलं (शीतल एवं उष्ण जल)। ' (ग) उपमान-पूर्वपद अर्थात उपमान-साधारणधर्म)। जैसे :-घणो इव सामोघणसामो ( मेघ के समान श्याम वर्ण), मित्रो इव चवला=मिचवलो (मृग के समान चपल)
(घ) उपमेयोत्तरपद (अर्थात् उपमान + उपमेय )जैसे :-चंदो इव मुहं चंदमुहं ( चन्द्रमा के समान मुख ) वज्जो इव देहो वज्जदेहो (बज्र के समान देह )।
ङ) उपमानोत्तर पद (अर्थात् उपमेय +उपमान).जैसे :-पुरिसो वग्घो ब्व-पुरिसवग्यो ( व्याघ्र के समान
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( ५३ ) पुरुष )। परिसो एव वग्घोपुरिसवग्यो (पुरुष ही व्याघ्र
हैं )। संजमो एवं धणं-संजमधणं (संयम रूपी धन )। (३) द्विगु समास-जैसा कि पूर्व में (दे० नियम सं० २)
बतलाया गया था कि कर्मधारय-समास में जब पूर्वपद संख्यावाची हो और उत्तरपद संज्ञावाची हो, तब वहाँ द्विगुसमास होता है। जैसे :-तिण्हं लोयाणं समूहो-तिलोयं (तीनों-लोक ) इसमें प्रथम पद तिण्हं (तीन) संख्यावाची है तथा उत्तरपद लोयाणं ( =लोक ) संज्ञावाची है। इसमें दोनों पद प्रथमान्त भी हैं। अतः यहाँ द्विगु-समास है। इसी प्रकार नवण्हं तत्ताणं समूहो-नवतत्त ( नवतत्त्वम् ), चउरो दिसायो चउदिसा (चारों दिशाए ) आदि भी जानना चाहिए।
तत्पुरुष समास के अन्य भेद-इस समास के अन्य दो प्रकार के भेद और भी पाए जाते हैं
(१) -तप्पुरिस (नज तत्पुरुष )-समास- इस समास में प्रथम शब्द नकारात्मक (अर्थात् निषेधार्थक) तथा दूसरा पद संज्ञा अथवा विशेषण होता है। इस समास में यह नियम ध्यान में रखना आवश्यक है कि इसमें व्यंजन से पहले आने वाले "ण" के स्थान में 'अ' तथा स्वर के पहले 'अ' के होने पर उसके स्थान में 'अण' हो जाता है । जैसे :
ण =अ- लोगो =अलोपो (अलोक :) -
ण दिट्ट = अदिट्ठ' (अदृष्टम् ) •णप्रण–ण ईसो=णीसो (अनीश :)
ण आयारो-प्रणायारो (अनाचार :)
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( ५४ ) (२)-पादि तप्पुरिस (प्रादि तत्पुरुष) समास-तत्पुरुष समास में जव प्रथम पद 'प' (प्र) आदि उपसर्ग-सहित हो, तब वहाँ प्रादि तत्पुरुष समास होता है। जैसे :-पगतो
आयरियो=पायरियो ( प्राचार्य :) ३ बहुम्वीही (बहुव्रीहि )-समास :-जब सभी पद किसी अन्य
पदार्थ के विशेषण के रूप में आवें, तव वहाँ बहुब्रोहि- समास होता है। इस समास को समझाने के लिए निम्न नियमों पर ध्यान देना आवश्यक है - - (क) इसके समस्त पद विशेषण होते हैं । अत: उनके लिंग, वचन आदि अपने विशेष्य के अनुसार होते हैं।
(ख) इसका विग्रह ( पदच्छेद ) करते समय 'ज' (यत्) शब्द अथवा उसके अन्य किसी रूप का प्रयोग किया जाता है, जिससे उसके पदों को अन्य पदों के साथ सम्बन्ध की जानकारी मिलती है।
· बहुब्रीहि समास दो प्रकार का है-(१) समानाधिकरण (अर्थात् समान-विभक्तिक) और (२) व्यधिकरण (अर्थात् असमान विभक्तिक)
। (१) समानाधिकरण बहुव्रीहि (प्रथमान्त + प्रथमान्त) समास-विग्रह (पदच्छेद) में व्यवहार में आने वाले ,'ज" (तत्) शब्द की द्वितीया आदि विभक्ति के भेद से यह समास ५ प्रकार का है। जैसे :-आरुढो वाणरो जं (रुक्ख) सोआरूढवाणरोरुक्खो (ऐसा वृक्ष, जिस पर बन्दर बैठा है)। इसी प्रकार पत्तणाणं ज सोपत्तणाणी-मुणो (ज्ञान-प्राप्त मुनि)
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( ५५ ) (ख) तृतीया-जैसे:-जिआणि इंदियाणि जेण सो =जिइंदियो मुणि (जितेन्द्रिय मुनि )
(ग) चतुर्थी एवं षष्ठी-जैसे:-दिणं धणं जस्स सो =दिण्णधणो बंभणो ( दत्तधनः ब्राह्मणः)। पीअं अंबरं जस्स सोपीअंबरो कण्हो ( पिताम्बरः कृष्णः) णीलो कंठो जस्स सो=णीलकंठो ( मयूरः )
(घ) पंचमी-जैसे:-णट्टो मोहो जामो सो=णट्ठमोहोमुणो ( नष्टमोहः मुनिः), भट्ठो आयारो जानो सो= भट्टायारो जणो (भृष्टाचारः जनः),
(ङ) सप्तमी-जैसे :-वीरा णरा जम्मि गामे सो= वीरणरो गामो (ऐसा ग्राम, जहाँ वीर पुरुष रहते हों)। (२) व्यधिकरण बहुव्रीहि (प्रथमान्त + षष्ठयन्त अथवा
सप्तम्यन्त ) समास-जैसे :-चक्कं पाणिम्मि जस्स सो= चक्कपाणी (चक्र है हाथ में जिसके, ऐसा विष्णु ), चंदो सेहरम्मि जस्स सोचंद सेहरो (शिव :) बहुव्रीहि समास के अन्य भेद
(क) उपमान पूर्वपद बहुव्रीहि समास-जिसका प्रथम पद उपमान हो । यथा : हंसगमणं इव गमणं जाए सो= हंस-गमणा। गजाणण इव आणणो जस्स सो गजाणणो (गणेशः)।
(ख) निषेधार्थक अथवा ना-बहुब्रीहि समास-जैसे:ण=-ण अस्थि णाहो जस्स सो प्रणाहो (अमाथः) ण =अणणत्थि उज्जमो जस्स सो=अणुज्जमों पुरिसो
(अनुद्यमः पुरुषः)
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. (ग) सहपूर्वपद बहुब्रोहि-जिसके पूर्वपद में 'सह' अव्यय आवे। इस “सह" का तृतीयान्त पद के साथ समास होता है । इस 'सह' के स्थान में 'स' हो जाता है। जैसेः-पुत्तेण सह =सपुत्तो। फलेण सह सहलं (सफलं) मूलेण सह = समूलं ।
(ग) प्रादि बहुब्रीहि-प्र (प) नि (णि) आदि उपसर्ग के साथ बहुब्रीहि समास-जैसे :-पगिट्ठ पुण्णं जस्स सो= पपुण्णो जणो (प्रपुण्यो जनः' निग्गया लज्जा जस्स सो=
जिल्लज्जो णरो (निर्लज्जो नरः) . ४. दंद-द्वन्द्व-समास :-प्रस्तुत समास में सभी पद प्रधान होते
हैं। इसके विग्रह में दो या दो से अधिक संज्ञाएं 'च', 'य' अथवा 'अ' शब्द से जोड़ी जाती हैं। यह समास ३ प्रकार का है :-- .: (अ) इतरेतरयोग द्वन्द्व समास-इसमें समस्त पद में बहुवचन का प्रयोग होता है तथा इसके समस्त पद प्रधान होते हैं। जैसे :-सुरा या असुरा य = सुरासुरा (सुर एवं असुर सभी देव), मोरो अहंसो अवाणरो अमोरहंसवाणरा। पुण्णं य पावं य = पुण्णापावाई। .. ... (आ) समाहार द्वन्द्व समास-प्रस्तुत समास में प्रयुक्त समस्त पदों से समूह का बोध होता है । इसी कारण समस्त पद में नपुसक एकवचन का प्रयोग होता है। जैसे :-तवो
य संज़मो य एएसिं समाहारोतवसंजमणाणं य दंसणं य . चरित य एएसि समाहारो=णाणदसणचरित्त।
इ) एकशेष द्वन्द्व-समास-जब समस्त पदों में से
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केवल एक पद ही शेष रहे, तब उसे एकशेषद्वन्द्व-समास कहते हैं। इसमें लुप्त हुए पद का बोध उसमें प्रयुक्त वचन संख्या से होता है। जैसे :
सासू या ससुरो य त्ति ससुरा ( श्वशुरौ) माया य पिया य त्ति=पिपरा (पितरौ)
नौवाँ पाठ
शब्द रुप . शब्द की परिभाषा :-जब विविध वर्गों के मेल से किसी नाम अथवा वस्तु का संकेत मिलता है, उसे ''शब्द" कहते हैं और इन्हीं सार्थक शब्दों के मेल से वाक्य बनता है, जो किसी भी भाषा का मूल आधार होता है। ___ इन्हीं सार्थक शब्दों को पद भी कहा जाता है। ये सार्थक शब्द अथवा पद दो प्रकार के होते हैं :
१. स्वाभाविक अथवा अविकारी-इस श्रेणी में वे सार्थक शब्द आते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक, काल आदि के अनुसार परिवर्तित नहीं होता। इसीलिए इन शब्दों को अव्यय भी कहा जाता है। इस प्रकार के अविकारी शब्दों में क्रिया - विशेषण, विस्मयादिबोधक, समुच्चय-बोधक एवं सम्बन्धबोधक शब्द आते हैं। ..
२. विकारी अथवा कृत्रिम शब्द-वे कहलाते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक, काल एवं पुरुष के आधार पर परिवर्तित हो जाता है। इस कोटि में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण एवं क्रिया शब्द आते हैं।
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( ५८ ) प्राकृत-शब्द रूपों की प्रमख विशेषताएँ(१) प्राकृत-व्याकरण के अनुसार प्राकृत में द्विवचन नहीं होता।
अतः समस्त शब्द-रूप एकवचन एवं बहुवचन में ही चलाए जाते हैं। चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति के शब्द रूप एक समान पाए जाते हैं। अतः प्राकृत में ६ कारक ही माने गए हैं।
सम्बोधन को भी प्रथमा विभक्ति के अन्तर्गत माना गया है। (३) ऋकारान्त (ऋ) एकारान्त (ए) ऐकारान्त (ऐ) ओकारान्त
(प्रो) एवं प्रौकारान्त (औ) शब्द प्राकृत में नहीं पाए जाते । (४) प्राकृत में संस्कृत के समान ही तीन ही पुरुष होते हैं
(१) प्रथम पुरुष, (२) मध्यम पुरुष एवं (३) उत्तम पुरुष (५) इसमें छह प्रकार के शब्द पाए जाते हैं :
(क) अकारान्त ( 'अ' से अन्त होने वाले शब्द ) (ख) प्राकारान्त ('आ' , (ग) इकारान्त ( "इ" , , , , ) (घ) ईकारान्त ("ई" , , , , (ङ) उकारान्त ( "उ" " " " " ) (च) ऊकारान्त ( "ऊ" , , , , )
विशेष-ध्यातव्य :--यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि प्राकृत के 'जनभाषा' होने के कारण क्षेत्रीय भाषाओं के प्रभाव से प्राकृत-भाषा के वैकल्पिक शब्द रूप भी बहुलता से मिलते हैं किन्तु प्रारम्भिक छात्रों की सुविधा की दृष्टि से उनके १-१ सरल शब्द-रूप ही यहाँ प्रस्तुत किए जावेगे ।
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( ५६
)
विभक्ति-चिन्ह-जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि "विभक्ति" वह है, जिसके द्वारा गणना, अथवा संख्या और कारक का बोध हो। इनकी सूचना देने वाले संकेतों को विभक्ति-चिन्ह कहते हैं। जैसे :-पढमा (प्रथमा), . वीया (द्वितीया), ओ, स्स, म्मि आदि।
शब्द रूप :--अकारान्त पुल्लिग शब्द-रूपों के कारक एवं विभक्ति-चिन्ह निम्न प्रकार होते हैंविभक्तियाँ एकवचन बहुवचन पढमा ( प्रथमा )- प्रो - ग्रा वीया (द्वितीया )- अं
प्रा तइया ( तृतीया )- ण, (एण) - हि, (एहि) चउत्थी एवं छट्ठी - स्स - ण, णं (आण, आणं) पंचमी - तो, हितो, सुतो (हितो, आसुतो) सत्तमी (सप्तमी) - म्मि- सु ! एसु) संवोहण (सम्बोधन)-ओ
आ इन विभक्ति-चिन्हों का प्रायोगिक रूप इस प्रकार होगाःविभक्तियाँ एकवचन . बहवचन पढमा
- देव + प्रो = देवो देव+प्रा=देवा वीया - देव+ =देवं देव+पा=देवा तइया - देव । एण=देवेण देव+एहि देवेहि चउत्थी, छट्ठी- देव+स्स=देवस्स देव + पाणं =देवाणं पंचमी - देव +त्तो =देवत्तो देव+पासुतो देवाहितो
· देव+आसुतो-देवासुतो
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-
-
-
सल्वा
( ६० ) सत्तमी - देव+म्मि=देवम्मि देव + एसु=देवेसु संवोहण - हे देव+ोहे देवो हे देव+पा=हे देवा । ठीक इसी प्रकार निम्न शब्द रूप भी जानना चाहिए। जैसे:
__अकारान्त पुल्लिग "सव" शब्द विभक्तियाँ एकवचन
बहुवचन प०
सव्वो बी० - सव्वं
सव्वा त० - सव्वेण सव्वेहिं च०, छ०- सव्वस्स - सव्वाणं पं० - सव्वत्तो –सव्वाहितो, सव्वासुतो स० -
सम्वम्मि - सब्बेसु
वीर-शब्द विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन प० बीरो
वीरा बी० - वीरं
वीरेण - वीरेहि च०, छ०- वीरस्स
वीराणं प० -
वीरत्तो - वीराहितो, वीरासुतो स० - वीर म्मि - वीरेसु . संवो - हे वीरो - हे वीरा
वच्छ ( वृक्ष ) शब्द विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन वच्छो
वच्छा वच्छ
वच्छा त०
वच्छेण - वच्छेहि
-
-
-
-
वीरा
०
-
प०
बी०
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संबो
.
( ६१ ) च०, छ० ---- वच्छस्स - वच्छाणं
- वच्छत्तो -वच्छाहितो, वच्छासुतो स० . .- वच्छम्मि - वच्छेसु
हे वच्छो - हे वच्छा
धम्म शब्द विभक्यिाँ एकवचन
बहुवचन प० धम्मो
धम्मा बी - धम्म -
धम्मेण - धम्मेहिं
धम्मस्स - धम्माणं पं. - धम्मत्तो - धम्माहितो, धम्मासुतो
धम्मम्मि - धम्मसु संबो - हे धम्मो - हे धम्मा । __ इसी प्रकार नरिद, बंभण सेवा, चंद दंड मेह, गय क, स, ज. एस इम आदि के शब्द-रूप भी चलेंगे।
_ 'राय' शब्द संस्कृत के राजन् शब्द से बना है। उसके शब्द-रूपों में एकाध स्थान पर कुछ अन्तर हो जाता है। जैसे
राय' शब्द विभक्तियाँ एकवचन प. राया
राया, राइणरे । बी० - रायं
राया राएण
राएहिं च०, छ०- रायस्स
...बहुवचन
-
-
त०
राईणं
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स० संवो०
- -
विभक्तियाँ
( ६२ ) रायत्तो - रायाहितो, रायासुतो रायम्मि
राएसु हे राया - हे राया अप्पा (आत्मा) एकवचन
बहुवचन अप्पा
अप्पा अप्पं अप्पेण - अप्पेहि अप्पस्स - अप्पाणं अप्पत्तो -अप्पाहिंतो, अप्पासुतो अप्पम्मि - अप्पेसु हे अप्पा - हे अप्पा
प० . वी०
- -
त०
च०, छ०पं०
संवो
-
इकारान्त एवं उकारान्त पुलिंग शब्द
प्राकृत में इकारान्त एवं उकारान्त पुलिंग शब्दों के विभक्ति-चिन्ह प्रायः एक समान होते हैं। जैसे :
इकारान्त-उकारान्त-इकारान्त-उकारान्त विभक्तियाँ एकवचन
बहुवचन प०- ई - ऊ - ई - ऊ वी०- अं ॐ - ई - ऊ त० - णा - णा - हिं - हिं च०, छ०-स्स- स्स - णं - णं पं० - त्तो - तो -हितो, सुतो-हितो, सुतो स० --म्मि-म्मि .- सु - सु संवो-इ - उ
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-
-
प०
मुणि
। । । । । । ।
इसके प्रयोग इस प्रकार किए जा सकते हैं :
इकारान्त मुनि शब्द विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन
मुणी - मुणी वी० - त० - मुणिणा -. मुणीहि च० स० - मुणिस्स - मुणीहिं
मुणित्तो -मुणीहितो, मुणीसुतो
मुणिम्मि - मुणीसु संवो - हे मुणि - हे मुणी
हरि शब्द विभक्तियाँ एकवचन
बहुवचन हरी । - वी० - हरि - हरी त० - हरिणा - हरीहिं च०,छ० - हरिस्स - पं०
हरित्तो - हरीहितो, हरीसुतो स०
हरिम्मि - हरीसु सवो - हे हरि - हे हरी
इसी ( ऋषि ) शब्द विभक्तियाँ एकवचन
बहुवचन - . इसी वी० - इसिं
इसी इसिणा -
इसीहि
-
प०
हरी
। । । । ।
हरीणं
-
प.
इसी
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पं०
- प०
।। । । । ।
०
०
०
( ६४ ) च०,छ०
इसिस्स - इसीणं इसित्तो -इसीहितो, इसीसुतो
इसिम्मि - इसीसु संबो - हे इसि - हे इसी
अग्गि ( अग्नि ) शब्द विभक्तियाँ . एकवचन . बहुवचन प० - अग्गी
अग्गी बी० - अग्गि - अग्गी
__अग्गिणा - अग्गीहिं अग्स्सि -
अग्गीणं पं० - अग्गित्तो - अग्गिहितो, अग्गिसुतो स० - अग्गिम्मि - अग्गिसु । संवो
हे अग्गि - हे अग्गी इसी प्रकार भूवइ (भूपति) करि अरि, गिरि, गहवइ, ण रवइ, रवि आदि के शब्द रूप भी चलेंगे।
___ उकारान्त पुलिंग भाणु ( सूर्य शब्द ) विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन प. वा० - भाणु त० - भाणुणा भाणुहि च,०छ० - भाणुस्स भाणूणं
भाणुत्तो –भाणुहितो, भाणुसुतो
भाणुम्मि - भाणुसु संवो० - हे भाणु - हे भाणू
०
भाणू
-
भाणू
पं०
स०
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__ वाउ (वायु ) शब्द विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन प० वाऊ
वाऊ वी० - वाउं
वाउणा - वाऊहिं च०,छ. वाउस्स -
वाऊणं पं० - वाउत्तो –वाहितो, वाऊसुतो स० - वाउम्मि - वाऊसु संवो० - हे वाउ - हे वाऊ
इसी प्रकार गुरु, साहु, घणु, सयंभु, मेरु, सव्वण्णु, आदि शब्द रूप भी चलेंगे।
प्राकृत में जिस प्रकार इकारान्त एवं उकारान्त पुल्लिग के शब्द रूप चलते हैं, उसी प्रकार उसके ईकारान्त एवं ऊकारान्त शब्द रूप चलते हैं।
स्त्रीलिंग के आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त उकारान्त एवं ऊकारान्त शब्द-रूप निम्न प्रकार चलेंगे
आकारान्त शब्दों के विभक्ति चिन्ह विभक्तियाँ
एकवचन बहुवचन प०
वी०
xx
त० च०, छ० पं०
हितो, सुतो
स०
संवो
X
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-
माला
त.
पं०
स० .
( ६६ ) उक्त विभक्ति-चिन्हों के प्रयोग इस प्रकार किए जायेंगे। जैसे :... आकारान्त स्त्रीलिंग
माला "शब्द" विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन
माला बी मालं
माला माला - मालाहिं . च० छ०
मालाणं .. -मालाहितो, मालासुतो
- मालासु संवो० - हे माला -. हे माला
लदा (लता) शब्द .: विभक्तियाँ . एकवचन वहुवचन
लदा - वी० -. लदं
लदा त० - लदान
लदाहिं च० छ०
लदाणं पं० -
। -लदाहिंतो, लदासुतो स० -
लदासु संबो - हे लदा - हे लदा
इसी प्रकार सा सव्वा, जा, का, एसा, इमा, कमला, कण्णा, अच्छरा, भज्जा, णिसा, दिसा, विज्जा आदि के शब्द रूप भी चलेंगे।
-
लदा
-
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विभक्तियाँ
त ०
( ६७ )
स्त्रीलिंग इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, ऊकारान्त शब्दों के विभक्ति-चिन्ह ( एक समान )
एकवचन
प० े
बी०
च, छ०
स०
संबो
---
प०
वी
----
इकारान्त-उकारान्त
ईकारान्त - ऊकारान्त
*(**)
अ
स०
सवो ०
त०
च०, छ०
पं०.
ܙܕ
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"
17
X
अ
.93
"
71
उक्त चिन्हों का प्रयोग निम्न प्रकार किया जायगा
इकारान्त स्त्रीलिंग "राई" (रात्रि) शब्द
विभक्तियाँ
एकवचन
राई
राई
राई
17
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19
बहुवचन
इकारान्त – उकारान्त
ईकारान्त उकारान्त
े
X
हिं
णं
हिंनो, सुतो, हितो, सुतो
सु
सु
}1
हे राइ
X
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हि
णं
बहुवचन
राई
"
राईह
राई -राईहितो, राईसुतो
राईसु
हे राई
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-
मई
मइं.
मईणं
। । । । । ।
( ६८ )
मा ( मति) शब्द विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन प०
मई - वी० -
मई - मईहिं . च०, छ०पं० - , -मईहितो, मईसुतो स०
, - मईसु संवो०- - हे मइ - हे मई
ईकारान्त स्त्रीलिंग लच्छी ( लक्ष्मी ) शब्द विभक्तियाँ एकवचन -
बहुवचन प० - लच्छी लच्छी वी० . --
.. लच्छि त० - . लच्छीम -- लच्छीहि च०,छ०
लच्छीणं ____ लच्छीहितो, लच्छीसुतो
, - लच्छीसु संवो . - . हे लच्छि - . हे लच्छी
उकारान्त स्त्रीलिंग रज्जु (रस्सी) शब्द विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन . . प० रज्जू
रज्जू रज्जु त०
रज्जूअ - रज्जूहि च०, छ०
रज्जूणं
पं०
-
स०
-
वी.
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पं०
स ०.
संबो
( ६६ )
रज्जू - रज्जू हितो, रज्जू सुतो
रज्जू सु
हे रज्जू
इसी प्रकार घेणु (गाय) तण, आदि के भी शब्द रूप चलेंगे ।
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प०
बी
त०
च०, छ०
पं०
-
ܕܙ
अकारान्त स्त्रीलिंग 'सासू' (सास) शब्द
विभक्तियाँ
एकवचन
रज्जुं
सासू
सासु
सासून
वणं
धणं
फलं
"
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17
17
सासुसु
स०
हे सासु
हे सासू
संवो० इसी प्रकार बहू, चमू (सेना), आदि के भी शब्द रूप चलेंगे ।
प्राकृत में नपुंसक लिंग रूप प्रायः नहीं मिलते। कहींकहीं यदि मिलते भी हैं, तो उनके रूपो में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अनुस्वार एवं बहुवचन में इं जोड़ दिया जाता है, बाकी के शब्द - रूप पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग के समान ही चलते हैं । जैसे :- वर्ण आदि शब्दों के रूप । यथा:
I
विभक्तियाँ
पढमा
एकवचन बहुवचन
वाइँ
धणाईं
फलाई
बहुवचन
"
सामूहि सासूणं - सासूहितो, सासूसुतो
सासू
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शेष शब्द रूप
पुल्लिंग:
के समान
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अम्हे
( ७० ) ..दहिं .- दहीई।
वारि - वारीई।
महुँ - महुई। "हम" "तुम" के प्राकृत शब्द रूप सभी लिंगों में एक समान चलते हैं। उनके अनेक वैकल्पिक रूप होते हैं । किन्तु प्रारम्भिक छात्रों की सुविधा हेतु यहाँ केवल १-१ सरल रूप ही दिया जा रहा है :
"हम" ( अस्मद् )-शब्द के रूप विभक्तियाँ एकवचन
बहवचन प० -
अहं - ती.
मए - अम्हेहि च०,छ०
अम्हे -- प्रम्हाणं ०... -- अम्हत्तो - अम्हाहितो, अम्हासुतो स० -
अम्हम्मि- अम्हेसु . ___ "तुम'' (युष्मद्) शब्द विभक्तियाँ एकवचन बहुवचन प०
तुम - तुम्हे पी० -
तुमए - तुम्हेहिं च०,छ.
तुम्हें . - . तुम्हाणं - -
तुम्हत्तो -तुम्हाहिंतो, तुम्हासुतो 'स.. - तुम्हींम्म - तुम्हेसु
-
त०
पं० .
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( ७१ ) संख्यावाची पुल्लिग "एक" शब्द के रूप
एकवचन बहुवचन । प० -एगो - एगा | बाकी के शब्द-रूप 'सव्व' वी० –एगं - , शब्द के समान चलेंगे।
- इसी प्रकार स्त्रीलिंग का एगा (=एक) शब्द लता के समान और नपुंसक लिंग का एग (एक) शब्द वणं (वन) के समान चलेंगे। . .
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि प्राकृत में "एक" को छोड़ कर अन्य समी की गणना बहुवचन में होती है। अतः 'एक' को छोड़कर बाकी के संख्यावाची शब्दों के शब्द-रूप सभी लिंगों में समान होते हैं तथा केवल बहुवचन में ही चलते हैं। जैसे :-- .
बे (दो) शब्द विं० . बहु० वि० बहु प० - बे, दुबे वी० - बे, दुबे ० - दोहि
च०,छ०- दोण्हं पं० - दोहितो स० - दोसु
ति (तीन) शब्द वि० बहु० .
वि० बहु प० - तिण्णि
वी० - तिण्णि त० - तीहि
च० छ०-- तीण्हं पं० - तीहितो ... स० - तीसु
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बहुवचन
-
( ७२ )
चड़ ( चार ) शब्द विभक्तियाँ प०
चउरो बी० त
चऊहि च०, छ.
चउण्हं पं०
चऊहितो, चऊसुतो
चऊसु इसी प्रकार पंच, छ, सत्त, अट्ट, णव, दह, तेरह आदि के शब्द रूप भी जानना चाहिए।
दसवाँ पाठ . धातु रूप परिभाषा-जिस मूल-शब्द से क्रिया का अर्थ निकलता हो, उसे धातु कहते हैं और जिस शब्द से किसी कार्य का करना अथवा प्रकट होने का बोध हो, उसे क्रिया कहते हैं। जैसे:--पढ+ इ क्रिया में मूल शब्द "पढ" धातु है, उसमें "इ" प्रत्यय जोड़कर उसे "पढ़इ" क्रिया बनाया, जिसका अर्थ हुअा-- "पढ़ता हैं"। तात्पर्य यह कि क्रिया के मूल-रूप को धातु कहते हैं :
प्राकृत के धातु-रूपों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं : --- (१) प्राकृत के धातु-रूपों में एकवचन एवं बहुवचन ही होता है ।
उसमें द्विवचन नहीं होता। .
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( ७३ )
( २ ) पुरुष तीनों होते हैं- प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष एवं उत्तम. पुरुष ।
(३) व्यञ्जनान्त धातुत्रों में 'प्र' विकरण जोड़कर उन्हें स्वरान्त बना दिया जाता है ।
(४) कर्तृवाच्य एवं कर्मवाच्य प्रायः एक समान होते हैं ।
(५) आत्मनेपद का प्रायः लोप एवं परस्मैपद रूपों की प्रधानता मिलती है ।
(६) वर्तमान, भूत, भविष्यत् प्राज्ञार्थक, विध्यर्थक एवं क्रियातिपत्ति इन छह कालों की प्रधानता मिलती है ।
,
(७) प्राज्ञार्थक एवं विध्यर्थक तथा भूत-काल एवं क्रियातिपत्ति के रूपों में प्रायः समानता दृष्टिगोचर होती हैं ।
(८) धातु रूपों में स्वादिगण की प्रधानता मिलती है ।
( 8 )
अस् धातु के वर्तमान, भविष्यत्, विधि, एवं आज्ञा के सभी वचनों एवं पुरुषों में एक समान रूप मिलते हैं ।
(क) वर्तमान काल के प्रत्यय-चिन्ह
पुरुष
पढभो पुरिसां
मज्झिम पुरिसो उत्तिम पूरितो
मो मु
इन प्रत्यय - चिन्हों का प्रयोग इस प्रकार किया जायगा :
एकवचन
इ, ए
सि, से
मि
(१) हो ( होने अर्थ में भू-) धातु के रूप
पुरुष
प० पु०
एकवचन
होइ
बहुवचन
न्ति, ते
इत्था, ह
बहुवचन
होंति
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म० पु०
होसि
उ० पु०
होमि
(२) पढ ( पढने अर्थ में पठ्) धातु
पुरुष
एकवचन
प० पु०
म० पु०
उ० पु०. (३) हस् (हँसने अर्थ में- हस्- ) धातु
पुरुष
एकवचन
पं० पु०
म० पु०
उ० पु०
G
पं० पु०
म० पु०,
उ० पु०
हसइ
हससि
हामि
(४) गच्छ (जाने अर्थ में ) धातु
पुरुष
एकवचन
प० पु०
गच्छइ
म० पु० उ० पु०
गच्छसिं गच्छामि
(५) ण्ह ( स्नान करने के अर्थ में) धातु
पुरुष
एकवचन
Sim
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wi
( ७४ )
HONEY
P
पढइ
पढसि
पठामि
व्हाइ
हासि हामि
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-
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होइत्था, होह
होमो
बहुबचन
पढंति
पढिस्था, पढह
पढिमो
बहुबच्चन
हति
हसित्था
हसिमो
बहुबच्चन
गच्छति गच्छत्था, गच्छ
मच्छिमो
बहुवचन
हांति हाइत्था, व्हाइ
व्हामो
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( ७५ )
हणंति
(६) हण (मारने अर्थ में) धातु
पुरुष एकवचन बहुवचन प० पू० - हणइ - म० पु० - हणसि हणित्था, हणह
उ० पु० - हणामि हणिमो (७) कर (करने अर्थ में-कृ--) धातु
पुरुष . एकवचन बहुवचन प० पु० - करइ - करंति म. पु० - करसि
करित्था, करह उ० पु० - करामि करिमो (८) पा (पीने के अर्थ में) धातु . पुरुष एकवचन बहुवचन
प० पु० - पाइ म. पु० - पासि
पाइत्था, पाह उ० पु० - पामि
पामो (६) अस् (है, "था" के अर्थ में) धातु
एकवचन
वहुवचन प० पु० - अत्थि - अस्थि म० पु० - अत्थि, असि- अत्थि उ. पु० - अत्थि, अम्हि- , अत्थि, अम्हो
विशेष :-अस् धातु पर पूर्वोक्त नियम पूर्ण रूप से लागू नहीं होते।
ध्यातव्य-धातु-रूपों का यही क्रम आगे के भूत, भविष्यत् प्रादि कालों में भी रखा जायगा।
पांति
पुरुष
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( ७६ ) (ख) भूतकाल के प्रत्यय ( विन्ह )
विशेष--ध्यातव्य--(अ) भूतकाल में अकारान्त ( अर्थात् संस्कृत में व्यंजनान्त ) धातुओं में सभी पुरुषों एवं वचनों में "ई" प्रत्यय लगता है। (आ) अन्य प्राकारान्त एकारान्त एवं प्रोकारान्त धातुओं में सभी पुरुषों एवं सभी वचनों में 'ही," "ही," "सी," प्रत्यय जुटते हैं , उदाहरणार्थ
__ पुरुष एकवचन बहुवचन पढमो पुरिसो ईअ. ई| व्यंजनान्त मज्झिमो पुरिसो ,
,, | धातुओं . उत्तिम पुरिसो
,, के लिए पुरुष एकवचन बहुवचन
प० पु०-हीअ, ही, सी ही, ही, सी | स्वरान्त - म० पु०-" , , , , " धातुप्रो
उ० पु०-, , , , , , के लिए - धातु रूपों में इनके प्रयोग इस प्रकार किए जावेंगे :(१) हो ( होने अर्थ में भू ) धातु . . ___ पुरुष एकवचन
बहुवचन प० पु० - होहीअ, होही, होसी-होहीअ, होही, होसी म० पु० - " . , , -- " , । उ० पु० - "
" " " " (२) पढ ( पढने अर्थ में पठ् ) धातु
एकवचन
बहुवचन प० पु० - पढिहीअ, पढिय पढिहीय, पढिय
पढिही, पढिसी पढिही, पढिसी
-
-
पुरुष
-
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पढिही, पढिसी " "
.
म० पु० - . पढिही, पढिसी
उ० पु० - " . , (३) हस् ( हंसने अर्थ में ) धातु पुरुप
एकवचन ५० पु० - हसीन
बहुबचन हसीन
म० पु०
-
पुरुष
उ० पु० - (४) गच्छ ( जाने के अर्थ में ) धातु
एकवचन
बहुवचन प० पु० गच्छी
गच्छी म० ए० -
उ० पु० - (५) ण्ह ( स्नान करने के अर्थ में) धातु
पुरुष एकवचन बहुवचन प० पु०-हाही हाही, हासी-हाहीन, हाही, हासी म० पु०- ,
" - " " " उ० प०- ,, , , - . , " (६) हण ( मारने अर्थ में ) धातु
एकवचन
बहुवचन प० पु० हणी
हणी म० पु० उ० पु.
पुरुष
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---
(७) कर ( करने अर्थ में कृ ) धातु
पुरुष
एकवचन
प० पु०
करीअ
म० पु० उं० पु०
""
(८) पा (पीने अर्थ में ) धातु
पुरुष
(
पुरुष
पढमो पुरिसो
७८ )
"
प० पु०
म० पु०
उ० पु०
( 8 ) अस् ( "है" "था" अर्थ में ) धातु
पुरुष
एकवचन
आसि हेसि
प० पु०
म० पु०
""
"
उ० पु० (ग) भविष्यत्काल के प्रत्यय - चिन्ह
एकवचन
""
एकवचन
7
बहुवचन
पाही पाही, पासी पाहीन, पाही, पासी
19
17
"Y
स्स, हिइ
स्ससि, हिसि -
स्वामि, हामि -
(१) हो ( होने के अर्थ में भू ) धातु
एकवचन
होस्सर, होहिइ
"
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बहुबचन करीअ
"
"}
..
17
"
पुरुष
प० पु०
म० पु०
उ० पु०
इन प्रत्ययों का प्रयोग इस प्रकार किया जायगा :
,
39
बहुवचन आसि, हेसि
17
"1
"
97
बहुवचन
स्वंति हिइ
सह. हिह, हित्था
सामो, हामो
बहुवचन
होस्संति होहिति
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( ७६ )
मज्झिमो पुरिसो - होस्ससि, होहिसि - होस्सह, होहित्या - होस्सामि, होहामि :- होस्सामो, होहामो
--
उत्तिमो पुरिसो (२) पढ ( पढने के अर्थ में पठ् ) धातु
पुरुष
एकवचन
बहुवचन
ब० पु०
पढिसइ, पहिर - पढिस्संति, पढिहिति पढिस्ससि, पढिहिसि - पढिस्सह, पढिहित्था
म० पु०
उ० पु० - पढिस्सामि, पढिहिमि - पढिस्सामो, पढिहिमो
(३) हस ( हँसने के अर्थ में ) धातु
पुरुष
एकवचन
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-
प० पु० म० पु०
उ० पु०.
(४) गच्छ धातु
पुरुष
एकबचन
बहुवचन
ष० पु० - गच्छस्सइ गंच्छिहिइ - गच्छिस्संति गच्छिहिति म० पु० - गच्छस्स सि, गच्छि हिसि - गच्छस्सह, गच्छिहित्था उ० पु० - गच्छस्सामि, गच्छिहिमि - गच्छस्सामो, गच्छि हिमो (५) वह धातु
पुरुष
--
बहुवचन
हसिस्सइ, हसिहिइ – हसिस्संति, हसिहिति हसिस्ससि, हसिहिसि -- हसिस्सह, हरिहित्था हसिस्सामि, हसि हिमि - हसिस्सामो, हसिंहिमो
--
एकवचन
प० पु०
हाइ, महाि
हास्संति, पहाहिंति
म०
पु० हास्ससि, हाहिसि - व्हा हिस्सह, महाहित्या
उ० पु०
व्हास्सामि महाहिमि - व्हास्सामो, हाहिमो
बहुवचन
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( ८० ).
(६) हण धातुपुरुष एकवंचन
बहुवचन प० पु० ~~ हणिस्सइ, हणिहिइ - हणिस्संति, हणिहिति म० पु० - हणिस्ससि, हणिहिसि - हणिस्सह, हणिहित्था उ० पु० - हणिस्सामि, हणिहिमि- हणिस्सामो, हणिहिमो
(७) कर धातु-. पुरुष
एकवचन
बहुवचन
प० पु० - करिस्सइ, करिहिइ - करिस्पति, करिहिति म० पु० - करिस्ससि, करिहिसि - करिस्सह, करिहित्था उ० पु० - करिस्सामि, करिहि मि- करिस्सामो, करिहिमो
(८) पा धातु
पुरुष
एकवचन
बहुवचन
प० पु० -- पास्सइ, पाहिइ - पास्संति, पाहिति म० पु० पास्ससि, पाहिसि - पास्सह, पाहित्था उ० पू० -पास्सामि, पाहिमि -- पास्सामो, पाहिमो
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(8) अस धातुपुरुष प० पु० - म० पु० उ० पु०
एकवचन अस्थि
बहुवचन अत्थि
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(८१ ) (घ) विधि एवं आज्ञार्थक-प्रत्यय पुरुष एकवचन बहुवचन प० पु० - उ
वर्तमान काल के “इ” म० पु० - सु, हि - ह प्रत्यय को प्रायः “उ” उ० पु० - मु -
प्रत्यय में बदल देने से
इसके रूप बन जाते हैं। इन प्रत्ययों का प्रयोग निम्न प्रकार किया जायगा :(१) हो धातु पुरुष एकवचन
बहुवचन प० पु० - होउ
होन्तु म० पु० - होसु, होहि - . होह उ. पु. होम
होमो (२) पढ धातु एकवचन
बहुवचन प० पु० - पढउ
पढंतु म० १० - पढसु, पढहि - पढह
उ. पू० - पढम् (३) हम धातु
पुरुष एकवचन बहुवचन प० पु० - हसउ - हसंतु। इसमें विकल्प से म० पु० - हससू, हसहि- हसह एकार भी होता उ० पु० -- हसिमु -- हसिमो है। अतः हसेउ,
हसेंतु आदि रूप | भी बनते हैं।
पुरुष
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पढमो
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( ८२ )
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(४) गच्छ धातु
पुरुष एकवचन बहुवचन प० पु -- गन्दर
गन्दंतु म० पु० -- गच्छसु गच्छह
उ० पु० -- . गच्छम ___ --- गच्छमो (५) एह धातु पुरुष एकवचन
बहुवचन प० पु० ~~ हाउ
गृहांन्तु म० पु० - हासु हाहि - हाह उ० पु० - हाम
हामो हण धातु पुरुष एकवचन
बहवचन प० पु० - हणज म० पु० - हणसु, हण हि - हणह उ० पु० - हणमु
हणमो (७) कर धातु पुरुष एकवचन
बहुवचन प० प० - करउ
करन्तु म० पु० - करसु, करहि - करह उ० पु० - करमु .
करिमो (८) पा धातु पुरुष एकवचन
बहुवचन प० पु० - पाउ
पान्तु
हणंतु
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( ८३ )
म० पु० - पासु, पाहि -- पाह
उ० पु० - पामु - पामो (६) अस् धातु इसके धातु रूप भबिष्यत काल के समान होते हैं ।
(ङ) क्रियातिपत्ति के प्रत्यय-चिन्ह पुरुष एकवचन बहुवचन प० पु० -- ज्ज, ज्जा, न्त, माण-ज्ज, ज्जा, न्त, माण म० पु० - " " , " -" " " उ० पु० - " " " " --" , " " उक्त प्रत्ययों के प्रयोग सभी वचनों एवं सभी पुरुषों में एक
समान चलेंगे। जैसे : . (१) हो वातु-होज्ज, होज्जा, होतो, होमाणो।.. (२) पढ धातु-पाढेज्ज, पढेज्जा, पढंतो, पढमाणो । (३) हस धातु-हसेज्ज, हसेज्जा, हसंतो, हसमाणो। . (४) गच्छ धातु गछेज्ज, गच्छेज्जा, गच्छंतो, गच्छमाणो। (५) एह धातु - हेज्ज, ण्हेज्जा, ण्हतो, प्रहमाणो : (६) हण् धातु-हणेज्ज, हणेज्जा, हणतो, हणमाणो। (७) कर धातु - करेज्ज, करेज्जा, करंतो, करमाणो । (८) पा धातु-पाज्ज, पाज्जा, पांतो, पामाणो।
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प्राकृत-भाषा एवं काव्य का महत्व पाइयकव्वस्स नमो पाइयकव्वं च निम्मियं जेण । ताहं चिय पणमामो पढिऊण य जे वि याणंति ॥१॥
प्राकृत काव्य को नमस्कार, प्राकृत-काव्य की रचना करने वालों को नमस्कार और उन्हें पढ़कर जो उनका गूढार्थ समझ लेते हैं, उन्हें भी नमस्कार। गाहाण रसा महिलाण विभमा कइजणाण उल्लावा। कस्स न हरंति हिययं बालाण य मम्मणुल्लावा ॥२॥
प्राकृत-भाषाओं के रस, महिलाओं के विभ्रम ( हाव-भाव ) कवियों की उक्तियाँ और बालकों को तोतली बोली किसके मन को आकर्षित नहीं करती? गाहा रुअइ वराई सिक्खिजति गवारलोएहिं । कीरइ लुचपलुचा जह गाई मंद दोहेहिं ॥३॥
जब गँवार ( अरसिक ) जन प्राकृत-काव्य संखने लगते हैं, तब प्राकृत-गाथा बेचारी रो पड़ती है क्योंकि वे लोग उसे उसी प्रकार नोंच-सरोंच डालते हैं, जिस प्रकार कोई अनाड़ी दुहने वाला गाय के थन को नोंच-खरोंच डालता है। सयलाओ इमं वाया विसंति एतो य णेति वायाओ। ए'ति समुद्दच्चिय णेति सायराओ च्चिय जलाइं ॥४॥ ___सभी भाषाएँ उसी प्रकार इस प्राकृत-भाषा में विलीन हो जाती हैं और इसी प्राकृत-भाषा से निकलती हैं, जिस प्रकार समस्त जल समुद्र में विलीन हो जाता है और समुद्र से ही निकलता है ।
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