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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केवल एक पद ही शेष रहे, तब उसे एकशेषद्वन्द्व-समास कहते हैं। इसमें लुप्त हुए पद का बोध उसमें प्रयुक्त वचन संख्या से होता है। जैसे : सासू या ससुरो य त्ति ससुरा ( श्वशुरौ) माया य पिया य त्ति=पिपरा (पितरौ) नौवाँ पाठ शब्द रुप . शब्द की परिभाषा :-जब विविध वर्गों के मेल से किसी नाम अथवा वस्तु का संकेत मिलता है, उसे ''शब्द" कहते हैं और इन्हीं सार्थक शब्दों के मेल से वाक्य बनता है, जो किसी भी भाषा का मूल आधार होता है। ___ इन्हीं सार्थक शब्दों को पद भी कहा जाता है। ये सार्थक शब्द अथवा पद दो प्रकार के होते हैं : १. स्वाभाविक अथवा अविकारी-इस श्रेणी में वे सार्थक शब्द आते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक, काल आदि के अनुसार परिवर्तित नहीं होता। इसीलिए इन शब्दों को अव्यय भी कहा जाता है। इस प्रकार के अविकारी शब्दों में क्रिया - विशेषण, विस्मयादिबोधक, समुच्चय-बोधक एवं सम्बन्धबोधक शब्द आते हैं। .. २. विकारी अथवा कृत्रिम शब्द-वे कहलाते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक, काल एवं पुरुष के आधार पर परिवर्तित हो जाता है। इस कोटि में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण एवं क्रिया शब्द आते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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