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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४६ ) हरिणो दोहद हरि के ऊपर द्रोह करता है । (घ) नमस्कार अर्थ में, जैसे :हरिणो णमो - हरि के लिए नमस्कार । (५) अपादान कारक - जिसमें किसी वस्तु के अलगाव की सूचना मिले उसमें पंचमी विभक्ति होती है । जैसे— धावत्तो प्रस्सत्ती पडइ = दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है । अन्य नियम - 1 ( क ) घृणा, प्रमाद आदि के अर्थ में । जैसे - पावतो दुगुच्छइ विरमइ = पाप से घृणा करता है । धम्मत्तो पमायइ = धर्म से प्रमाद करता है । (ख) असह्य पराजय के अर्थ में, जैसे :- प्रज्झयणत्तोपराजयइ = अध्ययन को असह्य मानकर भागता है । (ग) हेतु (कारण) के अर्थ में, जैसे : अण्णस्स उस्स वसइ = अन्न - प्राप्ति के प्रयोजन से रहता है । (६) अधिकरण कारक किसी भी क्रिया के आधार को अधिकरण कारक कहते हैं । जैसे मोक्खे इच्छा प्रत्थि = मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा है । तिलेसु तैलं = तिल में तेल है । यहाँ मोक्ष एवं तेल क्रिया के प्रमुख आधार होने से अधिकरण कारक है । इनमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है । For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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