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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) लक्खणो रामेण समं गच्छइ (लक्ष्मण राम के साथ जाता है) " , साअं , ( , , , ,)। (ख) जिस विकृत अंग के द्वारा अंगी में विकार ज्ञात हो, उस अंग में तृतीया विभक्ति होती है जैसे :__ पाएण खंजो (=पर से लंगड़ा)। कण्णेण बहिरो (=कान से बहिरा) (ग) जिस हेतु (प्रयोजन) से कोई कार्य जाना जाय, उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे : दंडेण घडो जागो (=डंडे के कारण घड़ा उत्पन्न हुआ)। (४) सम्प्रदान-सम्बन्ध कारक किसी के लिए क्रिया की जाय या वस्तु के दान देने के कारण कर्ता जिसे सन्तुष्ट करता है, उसे सम्प्रदान-सम्बन्ध कारक कहते हैं। इसमें चतुर्थी अथवा षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे:-विप्पाय विप्पस्स वा गावं देइब्राह्मण के लिए गाय दान में देता है। अन्य नियम (क) रुचि अर्थ में। जैसे :- हरिणो रोयइ भक्ति= हरि के लिए भक्ति अच्छी लगती है। (ख) 'कर्ज लेना' धातु के योग में ऋण देने वाले में । जैसे-भत्ताय भत्तस्स वा धरइ मोक्खं हरि-हरि भक्त के लिए मोक्ष धारण करता है। (ग) क्रोध एवं ईर्ष्या के अर्थ में, जैसे : हरिणो कुज्झइ=हरि के ऊपर क्रोध करता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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