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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६ ) व्यजनों का लोप होने पर जो स्वर शेष रह जाते हैं, उनमें स्वर-सन्धि के समान ही सन्धि-कार्य होता है। फिर भी, उसके कुछ नियम इस प्रकार बतलाए । गए हैं : ह्रस्व 'अ' के बाद आए हुए विसर्ग के स्थान में उस पूर्व ___ के 'अ' के साथ 'यो हो जाता है। जैसे : अग्रतः=अग्गो। पुरतः=पुरो । भवतः=भवनो। ख) शब्द या पद के अन्त में रहने वाले 'म' के स्थान में अनुस्वार हो जाता है। जैसे : देवम् =देवं । गिरिम् =गिरि. (ग) 'म' के बाद में आने वाले स्वर के रहने पर उस 'म' के स्थान पर विकल्प से अनुस्वार हो जाता है। जैसे: यम् +पाहु=यमाहु, यं आहु; धनम् + एव=धणमेव; धणं एव । (घ) जहाँ आदि-स्वर वाले दो पद एक साथ आवें, वहाँ उन दोनों पदों के मध्य में विकल्प से 'म्' हो जाता है । जैसेः एक्क+एक्क=एक्कमेक्कं; एक्केक्कं । एक्क+एक्केण=एक्कमेक्केण; एक्केक्केण । (च) शब्द या पद के बीच में आने वाले ड्, अ ण, एवं न के स्थान में अनुस्वार हो जाता है। जैसे : पराङ मुखः परंमुहो। कञ्चुकः=कंचुप्रो. षण्मुखः=छमुहो। प्रारम्भःप्रारंभो, अपवाद :कहीं कहीं अन्त्यवर्ती व्यञ्जन का लोप न होकर परवर्ती For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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