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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । २० ) स्वर के साथ उसकी सन्धि हो जाती है। जैसे : किम् + इहं=किमिहं। पुनर् + अपि-पुणरवि । प्राकृत-व्याकरण के नियमानुसार प्रायः अनुस्वार का लोप भी हो जाता है। जैसे :- संस्कारः=सक्कारो। संस्कृतं सक्कयं । विसति=वीसा। त्रिंशत्=तीसा। (ज) कहीं कहीं प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय वर्ण पर अनुस्वार का आगम हो जाता है। जैसे :-- वक्रम् =बंकं । दर्शनम् =दसणं । इह=इहं। मनस्वी=मणंसी। उपरि=उरि। सम्मुखमसम्मुहं । (झ) क्त्वा प्रत्यय के प्राकृत के तूण, तुप्राण, ऊण एवं उप्राण के 'ण' पर अनुस्वार हो जाता है। जैसे : काउण=काऊणं । काउपाण=काउआणं । इसी प्रकार तृतीया एकवचन, षष्ठी बहुवचन के 'ण' पर तथा सप्तमी बहुवचन के 'सु' पर भी अनुस्वार हो जाता है। जैसे :- . तेण तेणं। कालेण=कालेणं । वच्छेसु=वच्छेसु। (३) अव्यय सन्धि : -. अव्यय-पदों में परस्पर में सन्धि हो जाने को अव्ययसन्धि कहते हैं। यद्यपि यह सन्धि भी स्वर-सन्धि के अन्तर्गत आती है तथापि अव्यय-सन्धि के विषय में कुछ विशेष विचार करने की दृष्टि से यहाँ कुछ नियमों का विवेचन किया जा रहा है : For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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