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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१ ) (अ) पूर्व - पद के बाद आए हुए स्वर का विकल्प से लोप हो :-- जाता है तथा 'प' के स्थान में 'व' हो जाता है । जैसे : केन + अपि = केणवि; केणावि. को + अपि = कोवि; को अवि. तम् + अपि = तंवि; तमवि. किम् + अपि = किवि; किमंदि. (प्रा) अन्तिम पद के आद्य 'इ' का विकल्प से लोप तथा पद के अन्तके 'त' का द्वित्व हो जाता है । जैसे :दीसइ + इति = दीसइत्ति; दीसइ इति. तहा + इति = तहत्ति, तहा इति जइ + इमा = जइमा; जइ इमा. (इ) यदि 'इति' शब्द अव्यय-पद के प्रारम्भ में आवे तो उसके स्थान में 'इन' होगा | जैसे :इति विन्ध्यगुफामध्ये = इन विज्झगुहामज्झे का प्रयोग हो तो उसके जैसे गेहं + इव गेहूं व. - (ई) यदि अनुस्वार के बाद 'इव' स्थान में 'व' हो जाता है। ( उ ) यदि स्वर के बाद 'इव' का प्रयोग हो तब उसके स्थान में 'व्व' हो जाता है । जैसे- चंदो इव= चंदो व्व. चौथा पाठ कृदन्त कृत प्रत्यय :- धातुत्रों से संज्ञा-विशेषण अव्यय आदि बनाने के लिए जिन प्रत्ययों को धातुओं के साथ जोड़ा जाता है, उन्हें कृत्-प्रत्यय कहते हैं और उन प्रत्ययों के For Private and Personal Use Only 3
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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