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(ii )
खारबेल ने अपने लोक मंगलकारी सर्वोदयी आदर्श विचारों एवं प्रज्ञाओं का प्रचार-प्रसार प्राकृत भाषा में किया ।
प्राकृत के जनभाषाई रूप एवं लोकप्रियता के कारण संस्कृत के प्रायः सभी नाटककारों - शूद्रक, भास, कालिदास आदि ने भी अपने संस्कृत - नाटकों में उसे सम्मानित स्थान प्रदान किया । प्राकृत के व्याकरण सम्बन्धी सिद्धान्तों की कुछ चर्चा प्राचीन आगम ग्रन्थों में मिलती है। उनमें प्राकृत-व्याकरण के अनेक ग्रन्थों की चर्चा भी आई है। कहा जाता है कि प्राकृतलक्षण (महर्षि पाणिनि ), ऐन्द्र व्याकरण (इन्द्र), सद्द - पाहुड (अज्ञात) प्राकृत-व्याकरण ( समन्तभद्र ), स्वयम्भू व्याकरण ( स्वयम्भू ) प्राकृत साहित्य - रत्नाकर ( अज्ञात ) आदि में अपने-अपने ढंग से प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी नियम लिखे गए थे किन्तु आज वे ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । जो उपलब्ध हैं उनमें प्राकृत - लक्षण ( चपड ) प्राकृत - प्रकाश ( वररुचि ) प्राकृत प्रकाश को मनोरमा टीका ( भामह) प्राकृत - मंजरी ( कात्यायन), प्राकृत संजीवनी ( वसन्तराज ), सुबोधिनी (सदानन्द), सिद्धहेमशब्दानुशासन (प्राचार्य हेमचन्द ) प्राकृतानुशासन ( पुरुषोत्तम ), प्राकृतशब्दानुशासन ( त्रिविक्रम ) षड्भाषा चन्द्रिका ( लक्ष्मीधर ) प्राकृतरूपावतार ( सिंहराज ) प्राकृतकल्पतरु ( रामशर्मातर्क वागीश, प्राकृतकामधेनु ( लंकेश्वर ) प्राकृत- चन्द्रिका ( शेषकृष्ण ) प्राकृतानन्द ( रघुनाथकवि ) प्राकृत- दीपिका ( चण्डीदेव शर्मा ) प्राकृतकल्पलतिका ( ऋषिकेश ) यदि प्रमुख हैं । इनका प्रकाशन अधुनातम वैज्ञानिक पद्धति से हो चुका है तथा देश-विदेश के विश्व विद्यालयों में पाठ्य-ग्रन्थों के रूप में स्वीकृत हैं ।
प्राकृत वैयाकरणों ने स्थान एवं काल भेद के कारण प्राकृतों के अर्धमागधी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची,
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