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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) अन्य नियम (१) भूत कृदन्त के कर्तृवाच्य एवं कर्मवाच्य में कोई विशेष भेद नहीं पाया जाता । किन्तु कहीं-कहीं संस्कृत के कर्मणि भूतकृदन्त में 'व' जोड़कर उसे प्रदर्शित किया जाता है । जैसे :- कृ धातु से कय + वं = कयवं ( कृतवान् ) । स्पृष्ट धातु से पुट्ठ + वं पुटुवं ( स्पृष्टवान् ) आदि । (२) प्रेरणार्थक भूत - कृदन्त में आवि और इ ( 'इ' प्रत्यय होने पर उसके उपान्त्य में 'प्र' को 'आ' होता है) प्रत्यय के जोड़ने के बाद भूत - कृदन्त के प्रत्यय धातु में जोड़ने से प्रेरणार्थक भूत - कृदन्त के रूप बनते हैं । जैसे :- कृ धातु से कर + आवि + अ = करावि ( करवाया ) । हस् धातु से हसावित्रं ( हंसवाया या हसाया ) । कर + इ = कारिअं ( कराया) आदि । (३) संम्बन्ध सूचक भूतकृदन्त: इसमें 'कर' अथवा 'करके' इस अर्थ में अथवा जब एक कर्ता की अनेक क्रियाएं होती हैं, तब पूर्वकालिक - क्रिया-बोधक धातुस्रों के साथ तु ( उ ) एवं तूण (ऊण) आदि प्रत्यय जोड़ दिए जाते हैं । तुप्राण (उत्राण), इत्ता, इत्ताण, आय और प्रत्ययों का प्रयोग प्रायः अर्धमागधी प्राकृत में मिलता हैं । ( ४ ) इसमें यह भी ध्यातव्य है कि प्रत्ययों (आय एवं आए को छोड़कर) के पूर्व में आने वाले 'अ' को 'इ' और 'ए' आदेश होते हैं। जैसे :- हस् धातु से - For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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