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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७३ ) ( २ ) पुरुष तीनों होते हैं- प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष एवं उत्तम. पुरुष । (३) व्यञ्जनान्त धातुत्रों में 'प्र' विकरण जोड़कर उन्हें स्वरान्त बना दिया जाता है । (४) कर्तृवाच्य एवं कर्मवाच्य प्रायः एक समान होते हैं । (५) आत्मनेपद का प्रायः लोप एवं परस्मैपद रूपों की प्रधानता मिलती है । (६) वर्तमान, भूत, भविष्यत् प्राज्ञार्थक, विध्यर्थक एवं क्रियातिपत्ति इन छह कालों की प्रधानता मिलती है । , (७) प्राज्ञार्थक एवं विध्यर्थक तथा भूत-काल एवं क्रियातिपत्ति के रूपों में प्रायः समानता दृष्टिगोचर होती हैं । (८) धातु रूपों में स्वादिगण की प्रधानता मिलती है । ( 8 ) अस् धातु के वर्तमान, भविष्यत्, विधि, एवं आज्ञा के सभी वचनों एवं पुरुषों में एक समान रूप मिलते हैं । (क) वर्तमान काल के प्रत्यय-चिन्ह पुरुष पढभो पुरिसां मज्झिम पुरिसो उत्तिम पूरितो मो मु इन प्रत्यय - चिन्हों का प्रयोग इस प्रकार किया जायगा : एकवचन इ, ए सि, से मि (१) हो ( होने अर्थ में भू-) धातु के रूप पुरुष प० पु० एकवचन होइ बहुवचन न्ति, ते इत्था, ह बहुवचन होंति For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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