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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४ ) (४) दी-स्वर, ह्रस्व-स्वर में बदल जाता है। जैसे - . चूर्णः = चुण्णो। पतिगृहं = पईहरं . आम्र = अम्बं। नीलोत्पलम् = नीलुप्पलं व्यञ्जन-परिवर्तन-- प्राकृत-भाषा में शब्द के प्रारम्भ में आने वाले न, य, श और ष को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जनों में सामान्यतया कोई परिवर्तन नहीं होता। उक्त 'न' आदि चार व्यञ्जनों में निम्न प्रकार परिवर्तन हो जाता है। यथा :--- न =ण -- नगरं = णयरं। नदी = णइ ,,,, - नरः = णरो। यमुना =जउणा. ज - यशः = जशो। यतिः = जई श=स - शब्दः = सद्दो। श्यामा = सामा ... ष=स - षड्जः = सज्जो। षण्ढः = संढो (१) शब्द के मध्य अथवा अन्तमें रहने वाले स्वर से परे तथा अन्य किसी व्यञ्जन से संयोग रहित क्. ग. च्. ज्. त्. द्, प् . य, व, का प्रायः लोप हो जाता है, किन्तु, उनके स्वर शेष बचे रह जाते हैं तथा लुप्त व्यञ्जन के अवशिष्ट 'अ' स्वर के स्थान पर कहीं-कहीं य-श्रुति होती है। जैसे : क-सुखकरः = सहयरो-सुहअरो। . सकल:- सयलो-सअलो ग-नगरम् =णय रं-णपरं। । सागरः = सायरो-साअरो For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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