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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) स्वर - सन्धि कहते हैं । इसे अच्- सन्धि अथवा सवर्णस्वर - सन्धि भी कहते हैं । इस सन्धि के ४ भेद हैं :(i) दीर्घ स्वर - सन्धि : उसे कहते हैं, जिसमें ह्रस्व या दीर्घ श्र. इ और उ स्वर से यदि उनका स्व-सवर्ण स्वर परे (अर्थात् बाद में) रहे, तो दोनों के स्थान में विकल्प से सवर्ण - दीर्घ होता है । जैसे : (क) अ + अ = आगर + अहिवा = णराहिवा, परअहिवा, ( नराधिपः ) दंड + ग्रहीसो = दंडाहीसो, दंड = श्रहीसो, ( दण्डाधीशः ) अ + आ = आ + प्रांगनी = णागओ, ण - आगो - ( नागतः ) ण + आलवइ = णालवइ, ण - प्रलवइ ( नालपति ) आ + अ = श्रा - रमा + प्रहीणी = रमाहीणो, रमा प्रहीणो ( रमाधीनः ) आ + आ = - रमा + आरामो = रमारामो, रमा आरामो (ख) इ + इ = ई मुणि + इणो मुणीणो, मुणि- इणो ( मुनीनः ) इ + ई = ई मुणि + ईसरो = मुणीसरो, मुणि - इसरो ( मुनीश्वरः ) ई + इ = ई-गामणी + इइहासो = गामणी इहासो, गामणी इइहासो For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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