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शाकारी, ढक्की, चाण्डाली, आभीरी एवं अपभ्रश जैसे अनेक भेद किए हैं तथा भाषा-वैज्ञानिकों ने आधुनिक भारतीय-भाषाओं की उसे जननी कहा है। बिहार की मगही, मैथिली एवं भोजपुरी भाषाओं का भी इन्हीं प्राकृतों से जन्म माना गया है।
जर्मन, अंग्रेजी, गुजराती एवं हिन्दी में भी आधुनिक शैली में प्राकृत-व्याकरण के अनेक ग्रन्थ लिखें गए हैं किन्तु विषय की गम्भीरता, नियमों की बहुलता, ग्रन्थों की विशालता एवं उनकी कीमतों की अधिकता के कारण प्रारम्भिक कक्षाओं के छात्र-छात्राओं तथा सामान्य जिज्ञासु पाठकों की पहुंच से दूर होने के कारण वे केवल विद्वद्भोग्य ही बन सके, सर्वभोग्य नहीं बन पाए। इस कारण प्रारम्भिक छात्रों के सम्मुख बड़ी कठिनाईयाँ
आती रही हैं। इसीलिए उस रिक्तता की पूर्ति हेतु अपने सहयोगी प्राध्यापकों एवं साहित्य-प्रेमी बन्धुओं की प्रेरणा से प्रस्तुत लघुपुस्तिका को तैयार किया गया है। इसमें प्राकृत के प्रारम्भिक छात्रों को ध्यान में रखकर ही केवल प्रारम्भिक, उपयोगी तथा आवश्यक विषयों तथा नियमों पर प्रकाश डाला गया है ।
विश्वास हैं कि यह प्रयास प्राकृत के जिज्ञासुओं के ज्ञानसंबर्द्धन में सहायक होगा! इसे कम समय में तैयार करना पड़ा है और स्थानीय प्रेस में ही मुद्रित कराया गया है। सावधानी बरतने पर भी उसमें अनेक त्रुटियों और अशुद्धियों की सम्भावना है। इनके लिए मैं सादर क्षमायाचना करते हुए विद्वान् पाठकों से उनकी सूचना एवं सुझाव आमन्त्रित करता हूँ, जिससे कि अगले संस्करण में उनका सदुपयोग किया जा सके। दिनांक २१-१-१९६० महाजन टोली नं० २, पारा
-राजाराम जैन (बिहार)
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