SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२) धनवान् =धणवंतो। पुण्यवान्=पुण्णवंतो। मानवान् =माणवतो. धर्मन् =धम्मं । नष्टम् =णटुं । दीपम् = दीवं (२१) प्राकृत-भाषा में शब्द के प्रारम्भ में प्रायः संयुक्त व्यंजनों के प्रयोग नहीं मिलते। जैसे : स्वभावः=सहावो। स्नेहः=णेहो। न्यायः=णायो ग्रामः=गामो। दारंवारं, दारं । स्वरः सरो (२२) स्वर-भक्ति-व्यंजन को किसी स्वर से विभाजित करके जब उसे स्वरयुक्त व्यंजन बना दिया जाय: तव इस प्रक्रिया को स्वर-भक्ति कहते हैं। जैसे : क्रिया=किरिया। वर्षः =वरिसो। . . . हर्षः-हरिसो। स्नेहः=सिणेहो। . प्राचार्यः=पायरियो। श्लोकः=सिलोरो। (२३) प्राकृत-भाषा में द्विवचन का प्रयोग नहीं होता। केवल एक वचन एवं बहु वचन का ही प्रयोग किया जाता । द्विवचन को बहु वचन के अन्तर्गत ही मान लिया गया है। (२४) प्राकृत-व्याकरण के नियमानुसार प्राकृत-भाषा में केवल छह विभक्तियाँ ही होती हैं। क्योंकि उसमें चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति एक समान होती है। अतः उन्हें इस प्रकार बताया गया है-प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी एवं षष्ठी, पंचमी एवं सप्तमी। (२५) प्राकृत में लिंग तीन प्रकार के पाए जाते हैं। (क). पुल्लिंग (ख) स्त्रीलिंग (ग) नपुंसक-लिंग। For Private and Personal Use Only
SR No.020659
Book TitleSaral Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherPrachya Bharati Prakashan
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy