Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 51
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४२ ) -द्वितीया में पष्ठी वि०-सीमंधरस्स वंदे = (सीमंबर की वन्दना करता हूँ) -तृतीया से षष्ठी वि-चिरस्स मुक्का=(चिरकाल से - मुक्त हुई) -पंचमी से षष्ठी वि०-चोरस्स दोहेइ = ( चोर से . डरता है) -सप्तमी से षष्ठी वि०-पिट्ठीए केसभारो= ( पीठ पर केशों का भार है ) ३. द्वितीया एवं तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति के प्रयोग मिलते है। जैसे-णयरे ण जामि (=नगर को नहीं जाता हूँ। तिसु तेसु अलंकिया पुहवी (= उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हैं ) । ४. पंचमी विभक्ति के स्थान पर कभी तृतीया एवं कभी सप्तमी विभक्ति के प्रयोग मिलते हैं। जैसे :चोरेण-वीहेइ (=चोर से डरता है)। -विज्जालयम्मि पढिउ आगो बालो (=विद्यालय से .. पढ़कर बालक आ गया है)। अर्धमागधी प्राकृत में सप्तमी के स्थान में तृतीया विभक्ति के प्रयोग मिलते हैं। जैसे-- तेणं कालेणं तेणं समएणं-(उस काल में, उस समय में)। कारकों की संख्या:पूर्व में कहा जा चुका है कि प्राकृत में ६ कारक एवं ६ विभक्तियाँ मानी गई हैं। सम्बोधन पृथक् विभक्ति नहीं मानी गई है। क्योंकि वह प्रथमा विभक्ति ही है। षष्ठी For Private and Personal Use Only

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