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( ४४ ) (माणवक से) होने के कारण गौण है। अतः पहं में द्वितीया विभक्ति होगी। (ख) अभिप्रो (दोनों ओर), परिग्रो (चारों और), समय (समीप), निकहा (समीप), हा (खद), पडि (ोर, तरफ), सव्वग्रो (सभी ओर), धिम (धिक) उपरि-उवरि (ऊपर) समया, (समीप) इन शब्दों के योग में इनका जिनसे संयोग हो, उनमें कर्म कारक द्वितीया-विभक्ति होती है। जैसे :अहियो किसणं (कृष्ण के दोनों ओर), परिमो राम (राम के चारों ओर) गाम समया (गाँव के समीप), निकहा लक (लंका के समीप) आदि।
(३) करण कारक --
जो क्रिया की सिद्धि में कर्ता के लिए सबसे अधिक सहायक हो। अथवा, अपने अभीष्ट-कार्य की सफलता के लिए कर्ता जिसकी सर्वाधिक सहायता ले। उस स्थिति में करण कारक होता है। जैसे :-कण्हेण बाणेण हो कसो (=कृष्ण ने बाण के द्वारा कंस को मारा)। प्रस्तुत उदाहरण में कर्ता कृष्ण ने कंस को मारने में सबसे अधिक सहायता बाण से ली, इसीलिए बाण में तृतीय विभक्ति हुई। यद्यपि कंस-वध में कृष्ण के हाथ एवं धनुष भी सहायक हैं, किन्तु वे प्रमुख नहीं हैं, इसलिए उनमें करण-कारक नहीं हुआ।
अन्य नियम(क) सह-साथ सूचक शब्द-सह समं, साग्रं एवं सद्ध के योग में तृतीया-विभक्ति होती है जैसे :पुत्तेण सह प्रायो पिया-पिया (=पुत्र के साथ पिता पाया)
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