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( ४३ ) एवं चतुर्थी विभक्ति को भी एक समान माना गया है। इस
प्रकार कारक निम्न प्रकार प्राप्त होते हैं :(१) कर्ता कारक :
वह है, जो क्रिया का प्रधान कारक अर्थात् करने वाला हो । दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि क्रिया के करने में जो स्वतन्त्र हो, उसे कर्ता-कारक कहते हैं। जैसे :-सामो गच्छइ (= श्याम जाता है) इसमें “गच्छई" क्रिया का प्रधान
कर्ता श्याम है। अतः श्याम कर्ता कारक है। (२) कर्म कारक :
क्रिया के व्यापार का फल सूचित करने वाली संज्ञा के रूप को कर्मकारक कहते हैं। अथवा कर्तृवाच्य के अनुक्त कम में (अर्थात् कर्ता को जो अभीष्ट हो, उसमें) कर्म कारक होता है। जैसे :--पयेण ओयणं भुजइ ( =दूध से चाँवल खाता है) इसमें कर्ता को यद्यपि दूध एवं चाँवल दोनों अभीष्ट हैं, फिर भी अभीष्टतम (सर्वाधिक इच्छित) चाँवल ही है, दूध तो उसमें केवल सहायक पदार्थ है, न कि प्रमुख । अतः प्रोयणं ( चाँबल) में ही कर्म संज्ञा हुई है, न कि पय (दूध ) में। अन्य नियम(क) द्विकर्मक धातुओं का प्रयोग होने पर गौण-कर्म (अकथित) में अपादान कारक में भी द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे :-माणवयं पहं पुच्छइ (बालक से मार्ग को पूछता है)। यहाँ पर पहं ( पथ मार्ग) ही कर्ता का मुख्य अभीष्ट है और माणवक (बालक) तो अपादान-कारक
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