Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 50
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४१ ) कारक और विभक्ति में अन्तरयद्यपि व्याकरण का यह नियम है कि कता में प्रथमा विभक्ति और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे :-- रामो गाम गच्छइराम ग्राम को जाता हैं। किन्तु कारक एवं विभक्ति की परिभाषाओं का अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि दोनों में बहुत अन्तर है। सब से पहला अन्तर तो यह है कि एक ही वाक्य में कारक कुछ होता है और विभक्ति दूसरी ही होती है, जैसे- कंसो किण्हेण हो (कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया)। उक्त वाक्य में मारण-क्रिया का कर्ता (करने वाला) कृष्ण है किन्तु उसकी विभक्ति प्रथमा न होकर तृतीयाविभक्ति है। इसी प्रकार मारण-क्रिया का असली कर्म कंस है, उसमें द्वितीया विभक्ति न होकर उसे प्रथमा विभक्ति में रखा गया है। प्राकृत भाषा में कारक एवं विभक्तियों से सम्बन्धित नियम संस्कृत के समान ही हैं, फिर भी उनके व्यवहार में कहीं-कहीं अन्तर भी पाया जाता है। जैसे :(१) जहाँ संस्कृत में ७ विभक्तियाँ होती हैं, वहीं प्राकृत में ६ विभक्तियाँ होती हैं। क्योंकि इसमें चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति एक समान होती है। जैसे :-णमो देवस्स (नमः देवाय) =देवता के लिए नमस्कार हो। मुणीण देई (मुनिभ्यो ददाति)= मुनियों के लिए देता है। २. द्वितीया, तृतीया, पंचमी एवं सप्तमी विभक्तियों के स्थान पर षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे : For Private and Personal Use Only

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