Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 62
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५३ ) पुरुष )। परिसो एव वग्घोपुरिसवग्यो (पुरुष ही व्याघ्र हैं )। संजमो एवं धणं-संजमधणं (संयम रूपी धन )। (३) द्विगु समास-जैसा कि पूर्व में (दे० नियम सं० २) बतलाया गया था कि कर्मधारय-समास में जब पूर्वपद संख्यावाची हो और उत्तरपद संज्ञावाची हो, तब वहाँ द्विगुसमास होता है। जैसे :-तिण्हं लोयाणं समूहो-तिलोयं (तीनों-लोक ) इसमें प्रथम पद तिण्हं (तीन) संख्यावाची है तथा उत्तरपद लोयाणं ( =लोक ) संज्ञावाची है। इसमें दोनों पद प्रथमान्त भी हैं। अतः यहाँ द्विगु-समास है। इसी प्रकार नवण्हं तत्ताणं समूहो-नवतत्त ( नवतत्त्वम् ), चउरो दिसायो चउदिसा (चारों दिशाए ) आदि भी जानना चाहिए। तत्पुरुष समास के अन्य भेद-इस समास के अन्य दो प्रकार के भेद और भी पाए जाते हैं (१) -तप्पुरिस (नज तत्पुरुष )-समास- इस समास में प्रथम शब्द नकारात्मक (अर्थात् निषेधार्थक) तथा दूसरा पद संज्ञा अथवा विशेषण होता है। इस समास में यह नियम ध्यान में रखना आवश्यक है कि इसमें व्यंजन से पहले आने वाले "ण" के स्थान में 'अ' तथा स्वर के पहले 'अ' के होने पर उसके स्थान में 'अण' हो जाता है । जैसे : ण =अ- लोगो =अलोपो (अलोक :) - ण दिट्ट = अदिट्ठ' (अदृष्टम् ) •णप्रण–ण ईसो=णीसो (अनीश :) ण आयारो-प्रणायारो (अनाचार :) For Private and Personal Use Only

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