Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका आचार्य रुद्रट कृत काव्यालंकार के सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य नमिसाधु ने 'प्राकृत, शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है :-प्राक् पूर्व कृतं प्राकृतम् (२/१२ टीका) अर्थात् 'पहले किया गया। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि 'प्राकृत' वह भाषा है, जो, मानव-सृष्टि के प्रारम्भिक काल से व्याकरण आदि संस्कारों से रहित होने पर भी स्वाभाविक रूप से सामान्य जनता के विचारों के आदान-प्रदान का स्वाभाविक माध्यम रहती आई हो। इसी लिए 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति में 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम् “तथा" प्रकृतीनां साधारण जनानामिदं प्राकृतम्" कह कर जन-सामान्य की स्वाभाविक भाषा को 'प्राकृत' कहा गया। प्राकृत की उक्त व्युत्पत्तियों तथा अन्य भाषा-वैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह भी सिद्ध हो गया है कि वेदों में प्रयुक्त छान्दस्-भाषा से “लौकिक संस्कृत का विकास हुआ तथा वैदिककालीन ही प्राच्या या पूर्वदेशीया भाषा से जो 'भाषा' विकसित हुई, वह 'प्राकृत' कहलाई। इस दृष्टि से उक्त संस्कृत एवं प्राकृत : भाषाओं के विकास का स्रोत एक ही है अर्थात् दोनों सगी बहनें हैं। दोनों में अन्तर केवल यही है कि छान्दस् से विकसित भाषा के रूप को चूकि महर्षि पाणिनि ने व्याकरण के नियमों में बाँध दिया. अतः संस्कार हो जाने से वह संस्कृत कहलाई, जब कि प्राकृत का स्वाभाविक अर्थात् जनभाषा ( प्राकृत ) का ही रूप बना रहा, यद्यपि उसमें देश, काल एवं परिस्थितियों के कारण नाना प्रकार के परिवर्तन अवश्य होते रहे। प्राकृत-भाषा जन-सामान्य की लोकप्रिय एवं स्वाभाविक बोल-चाल की भाषा होने के कारण ही बिहार के महान् सपूत लोकनायक महावीर, बुद्ध, सम्राट अशोक एवं कलिंग सम्राट For Private and Personal Use Only

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