Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

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Page 26
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ ) , णई+सोत्त=णइसोत्तं; णईसोत्तं. ... गोरी+हरंगोरिहरं; गोरीहरं. जऊँडा+यडं=जऊँणयडं; जणायडं. (iv) प्रकृतिभाव अथवा सन्धि-निषेध स्वर-सन्धि : सन्धि का निषेध होना अर्थात् सन्धि का नहीं होना ही प्रकृतिभाव कहलाता है। इसमें दो स्वरों का मेल नहीं होता। यह प्रकृतिभाव संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। उदाहरणार्थ :-- (क) इ एवं उ की विजातीय-स्वर के साथ सन्धि नहीं होती । जेसे : इ+अपहावलि+अरुणोपहावलि अरुणो. . वि+अविन। जाइ + अंधोजाइ अंधो उ+अ-बहु +अवऊढो=बहु-अवऊढो (ख) ए और प्रो के प्रागे यदि कोई स्वर-वर्ण हो तो उनमें सन्धि नहीं होती। जैसे :-- ए+अ-वणे --अडइवणे अडइ... प्रो+प्रा-रुक्खादो+आप्रो= रुक्खादो प्राअो. ओ+ए-एग्रो+एत्थ =एप्रो-एत्थ. ओ+अ-अहो+अच्छरिअं=अहो अच्छरिअं (ग) उद्वत्त स्वर की किसी भी स्वर के साथ सन्धि नहीं होती। जैसे :निसा+अरो-निसारो (निशाचरः) गंध + उडिगंधउडि (गन्धकुटिम्) रयणी+अरोरयणीअरो (रजनीकरः) For Private and Personal Use Only

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