Book Title: Saral Prakrit Vyakaran
Author(s): Rajaram Jain
Publisher: Prachya Bharati Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) (घ) स्वर-वर्ण के परे रहने पर उसके पहले के स्वर का विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे :- . राम+उलंराउलं राअउलं ( राजकुलम् ), नीसास-+-ऊसासा=नीसासूसासा, नीसासऊसासा. नर+इदोनरिंदो, नरइदो (नरेन्द्र:). महा+इदो महिंदो, महाइ दो . उक्त उदाहरणों में सर्वत्र विजातीय स्वरों में पारस्परिक सन्धि न होने से प्रकृति-भाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है, किन्तु कहीं-कहीं अपवाद भी पाए जाते हैं और सन्धि के वैकल्पिक अथवा नित्य रूप भी मिलते हैं। जैसे :(क) वैकल्पिक सन्धि : अना =कुभ+आरो=कुभारो; कुभनारो. लोह+आरो=लोहारो; लोहारो. अ+ईतियस+ईसोतियसीसो; तियसईसो. उ+उसु + उरिसो=सूरिसो;सुउरिसो. (ख) नित्य सन्धि : . अ+प्रा=चक्क+प्रारो-चक्काओ (चक्रवाकः). साल+पाहणो=सालाहणो। (२) व्यञ्जन-सन्धि : व्यञ्जन-वर्ण के साथ व्यञ्जन अथवा स्वर के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे व्यञ्जन-सन्धि कहते हैं। जैसे धनं+एव धणमेव । किन्तु प्राकृत के वैयाकरणों ने व्यजंन-सन्धि का विशेष विचार नहीं किया। क्योंकि प्राकृत में प्रायः व्यञ्जनों में सन्धि नहीं होती। For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94