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( १८ ) (घ) स्वर-वर्ण के परे रहने पर उसके पहले के स्वर का विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे :- .
राम+उलंराउलं राअउलं ( राजकुलम् ), नीसास-+-ऊसासा=नीसासूसासा, नीसासऊसासा. नर+इदोनरिंदो, नरइदो (नरेन्द्र:).
महा+इदो महिंदो, महाइ दो . उक्त उदाहरणों में सर्वत्र विजातीय स्वरों में पारस्परिक सन्धि न होने से प्रकृति-भाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है, किन्तु कहीं-कहीं अपवाद भी पाए जाते हैं और सन्धि के वैकल्पिक अथवा नित्य रूप भी मिलते हैं। जैसे :(क) वैकल्पिक सन्धि :
अना =कुभ+आरो=कुभारो; कुभनारो. लोह+आरो=लोहारो; लोहारो. अ+ईतियस+ईसोतियसीसो; तियसईसो.
उ+उसु + उरिसो=सूरिसो;सुउरिसो. (ख) नित्य सन्धि :
. अ+प्रा=चक्क+प्रारो-चक्काओ (चक्रवाकः).
साल+पाहणो=सालाहणो। (२) व्यञ्जन-सन्धि :
व्यञ्जन-वर्ण के साथ व्यञ्जन अथवा स्वर के मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे व्यञ्जन-सन्धि कहते हैं। जैसे धनं+एव धणमेव । किन्तु प्राकृत के वैयाकरणों ने व्यजंन-सन्धि का विशेष विचार नहीं किया। क्योंकि प्राकृत में प्रायः व्यञ्जनों में सन्धि नहीं होती।
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