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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
अथ यत्र प्रमितिः समवेता स एव आत्मा न व्योमादिरिति न तद्विभागाभावः। ननु ‘समवेता' इति कोर्थः ? 'समवायेन सम्बद्धा' इति चेत् ? ननु तस्य नित्यसर्वगतैकत्वेन व्योमादावपि प्रमितेः सम्बन्धान्न तत्परिहारेणात्मनो विभागः । न च समवायाऽविशेषेऽपि समवायिनोविशेषान्नायं दोषः, समवायस्याभावप्रसक्तेः ।
अथ यदा यत्र यथा यद् भवति तदा तत्र तथा तदात्मादिकं कर्तुं समर्थमिति नैकदा सकलत5 दुत्पाद्यप्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः। न, स्वभावभूतसामर्थ्यभेदमन्तरेण कार्यस्य कालादिभेदाऽयोगात्, अन्यथा
दृश्यपृथिव्यादिमहाभूतकार्यनानात्वस्य कारणं किमदृष्टं पृथिवीपरमाण्वादिचतुर्विधमभ्युपेयते ?, एकमेवनंशं नित्यं सर्वगं सर्वोत्पत्तिमतां समवायिकारणमभ्युपगम्यताम् ।
* आत्मा-गगनादिभेद के लोप का संकट तदवस्थ * पूर्वपक्षी :- आत्मा एवं गगनादि का भेद लुप्त नहीं होगा, क्योंकि प्रमितिरूप फल जिस में समवेत 10 होता है वह आत्मा है, जिस में समवेत नहीं होता वह गगनादि अनात्मा है।
उत्तरपक्षी :- ‘समवेत' का क्या अर्थ है ? 'समवाय से सम्बद्ध' ऐसा कहने पर आत्मा का अनात्मा से विभाग अशक्य है क्योंकि समवाय को आप एक, नित्य एवं सर्वगत (सर्वसम्बद्ध) मानते हैं अतः आत्मा की तरह गगनादि से भी प्रमिति समवाय से सम्बद्ध रहेगी, गगनादि का परिहार नहीं करेगी।
यदि कहें - 'समवाय तो एक ही है, किन्तु 'समवायी' गगन या आत्मा भिन्न भिन्न है इस लिये 15 कोई विभागलोप का दोष नहीं है।' - ऐसा कहने पर तो समवाय की हस्ती ही मिट जायेगी, क्योंकि
समवाय का योगदान न होने पर भी प्रमिति का एवं शब्द का समवायी (क्रमशः) आत्मा एवं गगनादि स्वतः ही आपने भिन्न मान लिये हैं फिर समवाय की कल्पना आधारहीन ही बन जायेगी।
* सामर्थ्यभेद के विना कालभेद अशक्य * पूर्वपक्ष :- जो भी कार्य जैसे भी जहाँ जिस काल में उत्पन्न होता है, आत्मादि कारण भी वैसे 20 वहाँ उसी काल में उस कार्य करने में समर्थ रहता है। ऐसा मानने पर अब आत्मादिजन्य सभी
प्रमाणों की उत्पत्ति एक साथ हो जाने का अतिप्रसंग दूर हो जाता है। सभी काल में आत्मादि कारण स्वकार्य करने में समर्थ नहीं होते।
उत्तरपक्ष :- कार्योत्पत्ति में इस प्रकार भिन्नकालीनता का समर्थन तभी सम्भव है जब आत्मादि कारणों में स्वभावतः सामर्थ्यभेद माना जाय। जिस काल में वह कार्य करने को समर्थ है उस काल 25 में उस में स्वाभाविक तत्कार्यसामर्थ्य मानना होगा, जिस काल में वह उस कार्य को करने में असमर्थ
है उस काल में आत्मादि में उस कार्य के स्वाभाविक सामर्थ्य का अभाव, उस कार्य को न करनेवाला सामर्थ्य मानना पडेगा। इस प्रकार भिन्न भिन्न काल में भिन्न भिन्न समर्थ-असमर्थ स्वभाव मान्य रखना होगा, तभी कार्यों में कालभेद संगत होगा। यदि आप सामर्थ्यभेद बगैर ही स्वतः कालभेद मान लेंगे
तो पृथ्वी-जल-तेज-वायु के अतीन्द्रिय अदृश्य चतुर्विध परमाणुओं की कल्पना भी व्यर्थ ठहरेगी क्योंकि 30 परमाणुभेद विना भी दृश्य पृथ्वी-जलादि चार महाभूतात्मक कार्यों का भेद आप की उक्त मान्यता के
अनुसार स्वतः ही हो जायेगा। आगे चल कर आप सभी विविध उत्पत्तिशील कार्यों की उत्पत्ति के लिये एक, नित्य, निरंश, सर्वव्यापक समवायिकारण को ही मान लेंगे तो चल जायेगा, कार्यों का
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