________________
३२०
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ नैव तस्यापि निरस्तत्वात्। न हि पराभ्युपगमेन 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति संशयज्ञानमेकमुभयोल्लेखीन्द्रियार्थसंनिकर्षजं संभवति। असम्भवप्रकारश्च पूर्ववदनुसृत्यात्रापि वक्तव्यः। सविकल्पाध्यक्षप्रसाधनप्रकारश्चैकान्ताऽक्षणिकपक्षे न सम्भवत्येव, 'यः प्रागजनको बुद्धेः' (२३५-११) इत्यादेर्दूषणस्य तत्राऽविचलितस्वरूपत्वात् । यथा चाऽक्षणिकैकान्ते सहकार्यपेक्षा न संभवति भावानां तथा प्राक् प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते।
यदपि 'संशयज्ञानव्यवच्छेदार्थं व्यवसायात्मकपदम्' (२३३-६) तत्र ‘सामान्यप्रत्यक्षात् विशेषाऽप्रत्यक्षात् विशेषस्मृतेश्च' (द्रष्टव्यं वैशे-द०-२१२।१७) 'किंस्वित्' इत्यनवधारणात्मकः प्रत्ययः सन्देहो व्यवच्छेद्यतयाऽभिमत:- तत्र च किं प्रतिभाति ? धर्मिमात्रम् धर्मो वा ? यदि धर्मी वस्तुसत् प्रतिभाति तदा नाऽस्यापनेयता सम्यग्ज्ञानत्वात्। अथाऽवस्तुसन्नसावत्र प्रतिभाति तदाऽव्यभिचारिपदव्यावर्तितत्वान्न तद्व्यावर्त्तनाय
व्यवसायपदोपादानमर्थवत्। 10 अथ धर्मः प्रतिभाति तदाऽत्रापि वक्तव्यम् किमसौ स्थाणुत्व-पुरुषत्वयोरन्यतर: उभयं वा ? यदि
स्थाणुत्वलक्षणो वस्तुसन् कथमस्य ज्ञानस्य व्यवच्छेद्यता सम्यग्ज्ञानत्वादिति ? अथाऽपारमार्थिकोऽसौ तत्र 'इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्न' पद से ही संशयज्ञान का व्यवच्छेद हो जाता है।
न्यायदर्शन के सिद्धान्तानुसार देखा जाय तो कोटिद्वय उल्लेख कारक 'यह ठूठ है या पुरुष' ऐसा एक संशयज्ञान कभी भी इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से उत्पन्न नहीं ही होता। जैसे मरीचिजल ज्ञान में 15 जल के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष संभव नहीं है वैसे ही संशयज्ञानस्थल में अन्यतर कोटि के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष
का सम्भव नहीं है, इत्यादि पूर्वोक्त अनुसार (मरीचिजलज्ञानानुसार पृ० ३१२ से ३१८) यहाँ भी विवरण समझ लेना। संशयज्ञान में प्रत्यक्ष का लक्षण संगत नहीं है तो क्या सविकल्प प्रत्यक्ष में संगति है ? नहीं नहीं, एकान्त अक्षणिक वस्तु स्वीकारवादी नैयायिक के मत में सविकल्प प्रत्यक्ष की सिद्धि का
प्रस्तार भी सम्भवविहीन है। कारण, 'पहले जो बुद्धि का जनक नहीं है वह पीछे भी बुद्धि का जनक 20 नहीं हो सकता' ... इत्यादि जो दूषण पहले (२३५-३१) कहा गया है वह यहाँ भी अविचलरूप
से सावकाश है। यह भी पहले कहा है () कि एकान्त अक्षणिक वस्त वाद में पदार्थों को सहकारी की अपेक्षा संगतियुक्त नहीं, इस लिये यहाँ पुनरुक्ति नहीं करते हैं।
यह जो नैयायिकों ने कहा है – “प्रत्यक्षलक्षण में व्यवसायात्मकपद संशयज्ञान का व्यवच्छेद करने के लिये है। (२३३-१९) संशय उस प्रतीति को कहते हैं - जो ‘यह कुछ है' इस प्रकार अनिश्चयात्मक 25 होती है, (वैशेषिकदर्शन के सूत्र २-२१७ के मुताबिक) जो सामान्यधर्म के दर्शन से, विशेष धर्म के
अदर्शन से एवं विशेषधर्म के स्मरण से उत्पन्न होती है। नैयायिक ने भी न्यायदर्शन के सूत्र १-१२३ में विशेषसापेक्ष विमर्श को संशय कहा है। ऐसा संशय 'व्यवसायात्मक' पद का व्यवच्छेद्य है।" - नैयायिकों के इस कथन पर प्रश्न है कि इस प्रतीति में क्या दीखता है – मात्र धर्मी अथवा धर्म ?
यदि वास्तव धर्मी प्रतीत होता है तब तो वह सम्यग्ज्ञान रूप होने से व्यवच्छेद्य नहीं हो सकता। यदि 30 अवास्तविक धर्मी वहाँ दीखता है, तब तो 'अव्यभिचारि' पद से ही उस की व्यावृत्ति हो जाने से व्यवसायपद का प्रयोग निरर्थक ठहरा।
[ 'अव्यभिचारि' पद से व्यवसायात्मक' पद की चरितार्थता ] संशय प्रतीति में यदि धर्म दिखता है - तो यहाँ कहो कि कौनसा धर्म दिखता है ? स्थाणुत्व,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org