Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 458
________________ खण्ड-४, गाथा-१ ४३९ तस्य च ग्राहकमूहः प्रत्यक्षानुपलम्भप्रभवः प्रमाणम् । तच्चाऽविसंवादकत्वाद् अनक्षजत्वाद् अलिङ्गजत्वाच्च स्वार्थाध्यवसायरूपं मतिनिबन्धनमस्माकम(क) प्रमाणान्तरं परैः प्रमाणान्तरत्वेनावश्यमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा व्याप्तिग्राहकप्रमाणाभावतोऽनुमानस्याप्यप्रवृत्तिप्रसक्तेः। अत एवानुमानं प्रमाणमभ्युपगच्छता 'प्रत्यक्षमनुमानं चेति द्वे एव प्रमाणे' इति न वक्तव्यम्, अनुमानाभ्युपगमे यथोक्तन्यायेन प्रमाणान्तरस्याप्यापत्तेः। ___ यदपि 'गोत्वाद् विषाणी' इत्यादी ‘समुदायव्यवस्थायाः कारणं समुदायिनः' इत्यभिहितम् तत्रापि 5 व्यवस्था यदि शब्दात्मिका अथ विकल्पात्मिकाभ्युपगम्यते ? उभयथाऽपि नार्थेन प्रतिबन्धसिद्धिः। अतो न कार्यहेतुर्गमकः, नापि स्वभावहेतुरविनाभाववैकल्ये इति स्थितम् । 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य' इत्यनुपलब्धौ विशेषणोपादानं चानर्थकम् परचैतन्य-भूत-ग्रहादीनामदृश्यानामपि क्वचिदभावसिद्धेर्दाहादिव्यवहारदर्शनात् । यदि पुनरनुपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धेरभावो न सिध्येत् 'नेद निरात्मकं जीवच्छरीरम् अप्राणादिमत्त्वप्रसङ्गात्' इत्यत्र प्रयोगेऽदृश्यानुपलम्भादभावाऽसिद्धेघटादीनां नैरात्म्याऽसिद्धितो 'यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम्' इति 10 उत्तर :- नहीं, हमारे मत में तो हेतु का लक्षण अन्यथानुपपत्ति है। यह अन्यथानुपपत्ति लक्षण ऐसा है कि अन्य अन्य दर्शनों में प्रतिपादित हेतु के लक्षण – (बौद्धमत में) तादात्म्य-तदुत्पत्ति, (वैशेषिक मत में) पूर्ववत्-शेषवत्-सामान्यतोदृष्ट, (नैयायिक मत में) एकार्थसमवायी-संयोगी-समवायी इत्यादि, तथा (सांख्यमत में) वीत, अवीत और वीतावीत इत्यादि - इन सभी हेतु लक्षणों का व्यापक है। मतलब अन्य दर्शनों ने जो भी हेतु का लक्षण दिखाया है उन सभी में अविनाभावित्व को लेना 15 ही पडता है। कारण :- यदि अन्य दर्शन कथित लक्षणवाला हेतु वास्तव में गमक है तो अनिवार्यरूप से वे साध्य के अविनाभावी है यह स्वीकारना पडेगा क्योंकि अविनाभावशून्य हेतु गमक नहीं हो सकता। [ अविनाभाव का ग्राहक ऊह संज्ञक स्वतन्त्र प्रमाण - जैन मत ] __ यदि पूछा जाय - अविनाभावित्व का ग्राहक कौन सा प्रमाण है ? उत्तर :- प्रत्यक्ष-अनुपलम्भप्रेरित 20 ऊह ही ग्राहक प्रमाण है। हमारे मत से वह मतिज्ञानविशेषरूप स्वतन्त्र प्रमाण है। यह ऊह अविसंवादी होने से, इन्द्रियजन्य न होने से, तथा लिंगजन्य भी न होने से प्रत्यक्ष-अनुमान से इतर प्रमाण है जो स्वप्रकाशी एवं अर्थअध्यवसायि है। उक्त हेतुओं से अन्य वादियों को भी इस का स्वतन्त्रप्रमाणरूप से स्वीकार करना चाहिये। यदि नहीं करेंगे तो व्याप्तिग्राहक ऊह (यानी तर्क) प्रमाण न होने पर व्याप्ति भी प्रमाणभूत न होने से अनुमान की प्रवृत्ति रुक जायेगी। तात्पर्य, जिन्हें अनुमान प्रमाणरूप 25 से स्वीकार्य है, उन्हें चाहिये कि वे ‘प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण है' ऐसा आग्रह छोड दे क्योंकि अनुमान स्वीकारने पर उक्त युक्ति के बल से ऊहात्मक अन्य प्रमाण को भी स्वीकारना पडेगा। [कार्य-स्वभाव-अनुपलब्धि अविनाभाव के विना निरर्थक ] यह जो कहा जाता है - 'गोत्व से शृंगवाला... इत्यादि में समुदाय की व्यवस्था का कारण समुदायि (व्यक्ति) है' ... यहाँ व्यवस्था कैसी मानते हो ? शब्दात्मक या विकल्पात्मक ? किसी भी 30 प्रकार में अर्थ के साथ व्यवस्था का प्रतिबन्ध सिद्ध न होने से कार्यहेतु गमक नहीं हो सकता। अविनाभाव से वंचित स्वभावहेतु भी गमक नहीं हो सकता यह निश्चित है। तीसरे अनुपलब्धिलिंगक अनुमान Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only

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