Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 04
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 473
________________ ४५४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ निरावरणस्याऽक्रमस्य क्रमरूपत्वविरोधाच्च, तस्याऽऽवरणकृतत्वात्। ___ किञ्च, यदि सर्वथा क्रमेणैव तयोरुत्पत्तिरनेकान्तविरोधः। अथ कथञ्चित् तदा युगपदुत्पत्तिपक्षोऽप्यभ्युपगतः। न च द्वितीये क्षणे तयोरभावे अपर्यवसितता छाद्मस्थिकज्ञानस्येव युक्ता । पुनरुत्पादादपर्यवसितत्वे पर्यायस्याप्यपर्यवसितताप्रसक्तिः । द्रव्यार्थतया तत्त्वे द्वितीयक्षणेऽपि तयोः सद्भावोऽन्यथा द्रव्यार्थत्वायोगत्।।७।। ____5 तदेवं क्रमाभ्युपगमे तयोरागमविरोधः इत्युपसंहरन्नाह (मूलम्) संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्थि। केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाई।।८।। भी हैं और आत्मद्रव्य अनन्त होने से वे दोनों भी अनन्त (= अपर्यवसित) हैं। यदि एकान्त क्रमवादी कहें कि - हमारे एकान्त क्रमवाद में भी आत्मद्रव्य का तादात्म्य होने 10 से वे दोनों अपर्यवसित घट सकते हैं।' – तो इस मत में क्रमवाद के एकान्त को अनेकान्तवाद के साथ विरोध प्रसक्त होगा। यदि आप समकालीनमत में भी अनेकान्तवाद के साथ विरोध का आपादन करें तो यह भी गलत है क्योंकि हम तो ज्ञान-दर्शनपर्यायों से तादात्म्यभावापन्न एक ही केवलिद्रव्य की मान्यता रखते हैं, जैसे कि जिनमत में रूप-रसादि पर्यायों से तादात्म्यभावापन्न एक ही पुद्गलद्रव्य माना जाता है। केवलज्ञान-दर्शनपर्यायपरिणत आत्मद्रव्य अनन्त है क्रमिक नहीं है अतः तथाविधात्मद्रव्य 15 तादात्म्यभावापन्न ज्ञानदर्शन में भी क्रमिकता का संभव नहीं रहता। यदि कहें कि - 'आप के कथन का फलितार्थ यह है कि ज्ञान-दर्शन (पर्यायरूप होने से) अपने अपर्यवसित नहीं है किन्त नित्यआत्मद्रव्य अभेदरूप उपाधि के बल से अपर्यवसित है।' - यदि इस तरह औपाधिक अपर्यवसितत्व का आपादन करेंगे तो वास्तव में ज्ञान-दर्शन अपर्यवसित न होने से उन दोनों में एकान्ततः सपर्यवसितत्व प्रसक्त होगा, फलतः अनेकान्तस्वरूप के साथ विरोध 20 प्रसक्त होगा। दूसरा दोष यह होगा कि निरावरण केवलि के ज्ञान-दर्शन में वास्तविक समकालीनता के साथ आवरणप्रयुक्त क्रमिकता का विरोध भी प्रसक्त होगा, तब आप क्रमिकता का आग्रह करेंगे तो नित्यात्मद्रव्य अभेदप्रयुक्त अक्रमिकता नहीं मान सकेंगे। यह भी ज्ञातव्य है कि कदाचित् आप कथंचित् उन दोनों की समकालीन उत्पत्ति मान भी लेंगे - फिर भी क्रमिकता के जरिये दूसरे क्षण में ज्ञान-दर्शन का विरह तदवस्थ रहने से अपर्यवसितता 25 का स्वीकार नहीं कर पायेंगे, जैसे कि छद्मस्थज्ञानोपयोग में आप को अपर्यवसितता स्वीकृत नहीं है। यदि कहें कि - ‘दूसरे क्षण में पूर्वक्षण के ज्ञान-दर्शन के नाश के साथ नूतन ज्ञान-दर्शन का उत्पादन भी मान्य होने से (प्रवाहतः) अपर्यवसितता मान सकते हैं' – तब तो ज्ञान-दर्शन की तरह सर्व पर्यायों में अपर्यवसितता प्रसक्त होगी। यदि द्रव्यार्थिकनय से द्रव्यात्मकता के जरिये उन में द्वितीयादि क्षण में अपर्यवसितता मान्य करेंगे तो द्वितीयादि क्षण में भी उन्हीं ज्ञान-दर्शन की वास्तव सत्ता मान्य 30 करना होगा, अन्यथा उन में द्रव्यार्थता की संगति नहीं होगी।।७।। क्रमोपयोगद्वय पक्ष में आगमविरोध का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं - गाथा-व्याख्यार्थ :- केवलदर्शन का क्रमिक उद्भव मानने पर, उस काल में ज्ञान की सत्ता नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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